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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
आत्म को जान के पाप को भान के, तत्त्व को पाय के ध्यान उर आन के । क्रोध को हान के मान को हान के, लोभ को जीत के मोह को भान के ॥ २ ॥ धर्ममय होयके साधतैं मोक्ष को, बाधते मोह को जीतते द्वेष को । शांतता धारते साम्यता पालते, आप पूजन किये सर्व अघ बालते ।।३।। धन्य हैं आज हम दान सम्यक् करें, पात्र उत्तम महा पाप के दुःख दरें । पुण्य सम्पत्त भरें काज हमरे सरें, आप सम होयके जन्म सागर तरें ||४||
ॐ ह्रीं श्रीऋषभतीर्थंकरमुनीन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
देखो जी आदीश्वर स्वामी...
देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपर कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है।। टेक. ।। जगत विभूति भूति सम तजकर, निजानंद पद ध्याया है। सुरभित श्वासा आशा वासा, नासा दृष्टि सुहाया है ।। १ ।। कंचन वरन चले मन रंच न सुर-गिरि ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जाति विरोध नशाया है ।। २ ।। शुध-उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि सिर सोहे, मानो धुआँ उड़ाया है ।। ३ ।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन सबको साम्य बताया है। सुर नर नाग नमहिं पद जाके "दौल" तास जस गाया है ।।४।।