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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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बिन उपदेश सुज्ञान लहि, संयम विधि चालन्त ।
बुद्धि अमल प्रत्येक धर, पूजूं साधु महन्त ।।१५।। ॐ ह्रीं श्री प्रत्येकबुद्धित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१३।।
न्याय शास्त्र आगम बहू, पढें बिना जानन्त ।
परवादी जीतें सकल, पूजूं साधु महन्त ।।१६।। ॐ ह्रीं श्री वादित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१४।।
अग्नि पुष्प तंतू चलें, जंघा श्रेणी चाल।
चारण ऋद्धि महान धर, पूजूं साधु विशाल ।।१७।। ॐ ह्रीं श्री जलजंघातंतुपुष्पपत्रबीजश्रेणिवहून्यादिनिमित्ताश्रयचारण-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१५।।
नभ में उड़कर जात हैं, मेरु आदि शुभ थान ।
जिन वन्दत भविबोधते, जजूं साधु सुखखान।।१८।। ॐ ह्रीं श्री आकाशगमनशक्तिचारणर्द्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१६।।
अणिमा महिमा आदि बहु, भेद विक्रिया रिद्धि।
धरै करैं न विकारता, जनूँ यती समृद्धि ।।१९।। ॐ ह्रीं श्री अणिमामहिमालघिमागरिमाप्राप्तिकाम्यवशित्वर्द्धिप्राप्तेभ्योऽयं ।।२१७।।
अंतर्दधि कामेच्छ बहु, ऋद्धि विक्रिया जान ।
तप प्रभाव उपजे स्वयं, जजूं साधु अघहान ।।२०।। ॐ ह्रीं श्री विक्रियायांतर्धानादि-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१८।।
मास पक्ष दो चार दिन, करत रहें उपवास ।
आमरणं तप उग्र धर, जजूं साधु गुणवास ।।२१।। ॐ ह्रीं श्री उग्रतपऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१९।। घोर कठिन उपवास धर, दीप्तमई तन धार । सुरभि श्वास दुर्गन्ध बिन, जनूँ यती भव पार ।।२२।। ॐ ह्रीं श्री दीप्तऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२०।।
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