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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 115 बिन उपदेश सुज्ञान लहि, संयम विधि चालन्त । बुद्धि अमल प्रत्येक धर, पूजूं साधु महन्त ।।१५।। ॐ ह्रीं श्री प्रत्येकबुद्धित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१३।। न्याय शास्त्र आगम बहू, पढें बिना जानन्त । परवादी जीतें सकल, पूजूं साधु महन्त ।।१६।। ॐ ह्रीं श्री वादित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१४।। अग्नि पुष्प तंतू चलें, जंघा श्रेणी चाल। चारण ऋद्धि महान धर, पूजूं साधु विशाल ।।१७।। ॐ ह्रीं श्री जलजंघातंतुपुष्पपत्रबीजश्रेणिवहून्यादिनिमित्ताश्रयचारण-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१५।। नभ में उड़कर जात हैं, मेरु आदि शुभ थान । जिन वन्दत भविबोधते, जजूं साधु सुखखान।।१८।। ॐ ह्रीं श्री आकाशगमनशक्तिचारणर्द्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१६।। अणिमा महिमा आदि बहु, भेद विक्रिया रिद्धि। धरै करैं न विकारता, जनूँ यती समृद्धि ।।१९।। ॐ ह्रीं श्री अणिमामहिमालघिमागरिमाप्राप्तिकाम्यवशित्वर्द्धिप्राप्तेभ्योऽयं ।।२१७।। अंतर्दधि कामेच्छ बहु, ऋद्धि विक्रिया जान । तप प्रभाव उपजे स्वयं, जजूं साधु अघहान ।।२०।। ॐ ह्रीं श्री विक्रियायांतर्धानादि-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१८।। मास पक्ष दो चार दिन, करत रहें उपवास । आमरणं तप उग्र धर, जजूं साधु गुणवास ।।२१।। ॐ ह्रीं श्री उग्रतपऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१९।। घोर कठिन उपवास धर, दीप्तमई तन धार । सुरभि श्वास दुर्गन्ध बिन, जनूँ यती भव पार ।।२२।। ॐ ह्रीं श्री दीप्तऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२०।। u
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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