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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
चक्री सेना नर पशू, नाना शब्द करात। ।
पृथक्-पृथक् युगपत सुने, पूलूँ यति भय जात ।।७।। ॐ ह्रीं श्री संभिन्नश्रोत्र-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०५।।
गिरि सुमेरु रविचन्द्र को, कर पद से छू जात।
शक्ति महत् धारी यती, पूजूं पाप नशात ।।८।। ॐ ह्रीं श्री दूरस्पर्शनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०६।।
दूर क्षेत्र मिष्टान्न फल, स्वाद लेन बल धार ।
न वांछा रस लेन की, जजूं साधु गुणधार ।।९।। ॐ ह्रीं श्री दूरास्वादनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०७।।
घ्राणेन्द्रिय मर्याद से, अधिक क्षेत्र गन्धान ।
जान सकत जो साधु हैं, पूनँ ध्यान कृपान ।।१०।। ॐ ह्रीं श्री दूरघ्राणविषयग्राहकशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०८।।
नेत्रेन्द्रिय का विषय बल, जो चक्री जानन्त ।
तातें अधिक सुजानते, जजूं साधु बलवन्त ।।११।। ॐ ह्रीं श्री दूरावलोकनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०९।। ___ कर्णेन्द्रिय नवयोजना, शब्द सुनत चक्रीश।
तातें अधिक सुशक्तिधर, पूनँ चरण मुनीश ।।१२।। ॐ ह्रीं श्री दूरश्रवणशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१०।।
बिन अभ्यास मूहूर्त में, पढ जानत दश पूर्व ।
अर्थ भाव सब जानते, पूलूं यती अपूर्व ।।१३।। ॐ ह्रीं श्री दशपूर्वित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२११।।
चौदह पूर्व मूहुर्त में, पढ़ जानत अविकार ।
भाव अर्थ समझें सभी, पूजूं साधु चितार ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्दशपूर्वित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१२॥.