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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
परमार्थदृष्टि से विचार करे तो निज भगवान आत्मा के अनुभव पूर्वक निज आत्मा को जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है, इसी निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है और इसी निज भगवान आत्मा में जमनेरमने, समा जाने का नाम सम्यग्चारित्र है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की यह एकता ही साक्षात मुक्ति का मार्ग है, सुखी होने का सच्चा उपाय है। एक त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी, शुद्ध-बुद्ध, निरंजन निज भगवान आत्मा ही तीनों का एकमात्र आश्रयभूत तत्त्व होने से तीनों एक ही हैं। तीनों की एकता का यही वास्तविक स्वरूप है।
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इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी भाई बहिन का यह कर्तव्य है कि सबसे पहले वह निज भगवान आत्मा को सही रूप में जाने, पहिचाने; उसके जाननेपहिचानने में पूरी शक्ति से लगे ।
यद्यपि यह भगवान आत्मा देहदेवल में विराजमान है, तथापि यह देहरूप नहीं है; देहरूप कभी हुआ भी नहीं हैं और कभी देहरूप होगा भी नहीं। यह तो इस देह से पूर्णत: असम्पृक्त है, भिन्न है और भिन्न ही रहेगा; क्योंकि देह तो जड़ है, पुद्गलमयी है, अचेतन है, अपवित्र है, नाशवान है और यह भगवान आत्मा चेतन है, ज्ञानानन्दमयी है, परमपवित्र है और अविनाशी ध्रुवतत्त्व है। इस मलिन देह और परमपवित्र भगवान आत्मा का क्षणिक एक क्षेत्रावगाह संबंध है । एकक्षेत्रावगाह संबंध ही उसे कहते हैं कि जिस संबंध में दो या दो से अधिक पदार्थों का एक आकाश के प्रदेशों में एकसाथ रहना मात्र होता है । जैसे कोई कहे कि मेरा और आपका क्या संबंध है? उसके उत्तर में मैं कहूँ कि आप भी भारतवासी हैं और मैं भी भारतवासी हूँ, मात्र इतना ही संबंध है, इससे अधिक कुछ नहीं । इसीप्रकार यह आत्मा और यह देह दोनों जन्म से लेकर मृत्यु तक आकाश के एक ही प्रदेशों में एक साथ रहेंगे, इन दोनों में मात्र इतना ही संबंध है, इससे अधिक कुछ नहीं ।
मोही जीवों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि वे जिसके साथ कुछ दिन रह लें, उसी को अपना मानने लगते हैं। जेल की एक कोठरी में एक साथ