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छठवाँ दिन
जगमगा देंगे। जिन्हें तुच्छ जानकर वे त्याग कर आये हैं, उन्हीं को उनके चारों ओर सजावेंगे।
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रागियों की प्रवृत्तियाँ रागमय ही होती हैं, वैरागी और वीतरागी मुनिराजों को वे वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ कैसे सुहा सकती हैं? यह रहस्य है उनके करपात्री होने का ।
यह तो आप जानते ही हैं कि मुनिराज जब आहार लेकर वापिस लौटते हैं तो उन्हें आचार्य श्री के समक्ष उपस्थित होकर चर्या के काल में मन-वचनकाय की क्रिया में कुछ दोष लग गया हो, तो वह सब भी बताकर प्रायश्चित लेना होता है ।
भोजन की चर्या के बाद ही यह सब क्यों ?
इसलिए कि आहार के काल में गृहस्थों के समागम की अनिवार्यता है और उनके समागम में दोष होने की संभावना भी अधिक रहती है । इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि गृहस्थों का समागम साधुओं के लिए कितना खतरनाक है? इसी की विशुद्धि के लिए यह नियम रखा गया है कि आहारचर्या के बाद साधु आचार्यश्री के पास जाकर सब-कुछ निवेदन करें और उनके आदेशानुसार प्रायश्चित करें।
इस बात को ध्यान में रखकर वीतरागी साधुओं को गृहस्थों के समागम से बचने का पूरा-पूरा यत्न करना चाहिए। गृहस्थों का भी यह कर्तव्य है कि वे भी मुनिराजों को जगत के प्रपंचों में न उलझावें । यदि उन्हें उनका सत्समागम मिल जाता है तो उनसे वीतरागी चर्चा ही करना चाहिए, तत्वज्ञान समझने का ही प्रयास करना चाहिए ।
मुनिराज उद्दिष्ट आहार के त्यागी होते हैं। उनकी वृत्ति को मधुकरी वृत्ति कहा गया है। जिसप्रकार भौंरा या मधुमक्खी जिन फूलों से मधु ग्रहण करती है, रस ग्रहण करती है; वह उसे रंचमात्र भी क्षति न हो जावे- इस बात का ध्यान रखती हैं। वे पुष्प का रस लेते समय इतना ध्यान रखते हैं कि उस पर