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छठवाँ दिन
45 के चिन्तन में पर्याय की क्षणभंगुरता भी उनके ज्ञान-ध्यान में प्रतिदिन आती थी। मौत उनके लिए अनजानी और अबूझ नहीं थी। किसी की मृत्यु देखकर वैराग्य होना होता तो ८३ लाख पूर्व में कभी का हो गया होता।
इस बात की गंभीरता से अवगत होने के लिए आपको एक कठोर कल्पना करनी होगी। मैं प्रवचन कर रहा हूँ और आप सब शान्ति से सुन रहे हैं । ऐसे में ही अचानक प्रवचन करते-करते मेरी हृदयगति रुक जाय और मेरा देहावसान हो जाय तो आप क्या करेंगे? आप घबड़ाइये नहीं, मुझे कुछ भी होने वाला नहीं है। मैं तो मात्र उदाहरण दे रहा हूँ। हाँ, तो आप सोचिए कि क्या करेंगे आप?
एक तो यह हो सकता है कि आप सब गमगीन हो जाय, कार्यक्रम रुक जाय और दूसरा यह भी हो सकता है कि यदि पण्डित मर गया है तो हटाओ इसकी लाश जल्दी से, दूसरा विद्वान बुलवाओ और प्रवचन आरंभ करवाओ। कार्यक्रम भंग नहीं होना चाहिए, मरना-जीना तो लगा ही रहता है।
क्या आप इस दूसरी बात को बरदास्त कर पावेंगे? नहीं तो आप समझ लीजिए कि यह बात ऐसी ही हुई कि एक नृत्यांगना मर गई तो दूसरी हाजिर, पर नृत्य नहीं रुकना चाहिए। इसी प्रसंग ने ऋषभदेव के हृदय को मथ डाला था और उनका चित्त इस स्वार्थी जगत से पूर्णतः विरक्त हो गया था। ___ जब भी मैं इसप्रकार की चर्चा करता हूँ तो कुछ लोग बहुत क्षुब्ध हो जाते हैं। वे मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि आप ऐसा अशुभ उदाहरण नहीं दिया करें, हमें यह अच्छा नहीं लगता। उनसे मैं एक ही बात कहता हूँ कि इसमें अशुभ क्या है? ___क्या मुझे मरना नहीं है? एक-न-एक दिन तो सभी को मरना है। हम रोज ही तो पढ़ते हैं कि -
"राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ॥"