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पाँचवाँ दिन
कहा जाता है कि राजा ऋषभदेव अपनी दायीं जंघा पर ब्राह्मी को और बायीं जंघा पर सुन्दरी को बिठाकर एक साथ उन्हें अक्षरविद्या और अंकविद्या का शिक्षण देते थे । यही कारण है कि अक्षरविद्या तो बाईं से दाईं ओर लिखी जाती है और अंकविद्या ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाती है; क्योंकि बायें हाथ से ऊपर से नीचे की ओर लिखना ही सुविधाजनक रहता है।
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कर्मभूमि की सभी विद्याओं और कलाओं के मूलजनक राजा ऋषभदेव ही हैं। यदि वे युवावस्था के आरम्भ में ही दीक्षित हो जाते तो इन विद्याओं और कलाओं का विकास कैसे होता ? वस्तुतः तीर्थंकर ऋषभदेव तीर्थ प्रवर्तक होने के साथ-साथ युग प्रवर्तक भी हैं; हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए।
वह समय युग की आदि का समय था, कर्मभूमि आरम्भ ही हुई थीं । लोगों को कर्मभूमि की व्यवस्था का कुछ भी ज्ञान नहीं था। कल्पवृक्ष समाप्त हो गये थे। खान-पान की व्यवस्था श्रम साध्य हो गई थी। लोगों को अनाज उगाने और खाना पकाने की विधि भी ज्ञात न थी । यह सब रूपरेखा भी ऋषभदेव को ही व्यवस्थित करनी थी । अतः उनका लम्बे समय तक राजकाज संभालना युग की आवश्यकता थी ।
कर्मभूमि के आद्य सूत्रधार वे ही थे । उनका जीवन और उनके द्वारा दी गई व्यवस्था हमारे गृहस्थ जीवन का मूल आधार है। उनके जीवन में हमें वे सभी उपादान प्राप्त हो सकते हैं; जो हमारे गृहस्थ जीवन को सुव्यवस्थित बना सकते हैं। उनका जीवन हम सबके लिए एक आदर्श जीवन है। हमें अपने जीवन को उनके जीवन के अनुसार व्यवस्थित करना चाहिए ।
इसप्रकार यह जन्मकल्याणक के अवसर पर ऋषभदेव के गृहस्थ जीवन की संक्षिप्त चर्चा हुई।
अब कल दीक्षाकल्याणक का दिन है, जिसमें उनके वैराग्यमयी साधुजीवन का दिग्दर्शन होगा।