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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
ध्यान रहे, आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों परमागमों में प्राप्त होने वाली 'अरसमरूवमगंधं' गाथा पंचास्तिकाय की १२७वीं गाथा है और अजीव पदार्थ के व्याख्यान में आयी है। इस गाथा की टीका के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं: ह्न “इसप्रकार यहाँ जीव और अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मार्ग की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादित किया गया।”
उक्त जीव और अजीव के व्याख्यान के बाद उनके संयोगी परिणाम से निष्पन्न आस्रव, बंध, संवर आदि शेष सात पदार्थों के उत्पत्ति स्थान के हेतुभूत भावकर्म, द्रव्यकर्म के दुष्चक्र का वर्णन किया गया है। इस बाद चार गाथाओं में पुण्य-पाप पदार्थ का व्याख्यान किया है। इसके बाद (१३५ से १४०) छह गाथाओं में आस्रव पदार्थ का निरूपण है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि आस्रव के कारणों में अरहंतादि की भक्ति को भी गिनाया है। वहाँ कहा है कि ह्र
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“अरहंत सिद्ध साहुसु भक्ति धम्मामि जाय खलु चेढ्ढा ।
अगमणं यि गुरुणं पत्थरागो ति बुच्वंति ।। १३६ ।। उपर्युक्त अरहंत आदि पंचपरमेष्ठी भगवन्तों के प्रति भक्ति, पूजाआदि व्यवहार धर्म में आचरण और धर्म गुरुओं के प्रति प्रशस्त राग ह्न ये सब शुभभाव हैं। यद्यपि यह शुभ भाव उनके लिए उपयोगी है, जो अभी आत्मस्वभाव में स्थिर रहने में असमर्थ है। यदि वह पुरुषार्थ हीन व्यक्ति शुभ में नहीं रहेगा तो अशुभ में चला जायेगा । अतः अशुभ से बचने के लिए और वीतराग मार्ग में अग्रसर होने के लिए बीच-बीच में ज्ञानी को भी पंचपरमेष्ठी की शरण में आना ही पड़ता है, परन्तु जो शुभ में धर्म मान कर अटक जाते हैं, वे मोक्षमार्ग से भटक जाते हैं। अतः अशुभभाव में रहना नहीं, शुभभाव में अटकना नहीं और वीतरागता से भटकना नहीं है। ह्न यही जिनवाणी का संदेश है।
१. पंचास्तिकाय गाथा १३६, १३७
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पंचास्तिकाय परिशीलन
ग्रन्थ के प्रारम्भ में कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत प्राकृत गाथाओं पर 'समयव्याख्या' नाम की संस्कृत टीका लिखनेवाले आचार्य श्री अमृतचन्द्र मंगलाचरण के रूप में सर्वप्रथम कारणपरमात्मा को नमस्कार करते हैं। मंगलाचरण
सहजानन्दचैतन्य प्रकाशाय महीयसे ।
नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने । १ ॥
(सजानन्दचैतन्य प्रकाशाय) सहज आनन्द व सहज चैतन्यमय होने से जो (महीयसे) अतिमहान है [ तथा ] ( अनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने) अनन्त धर्ममय होने से महिमामण्डित हैं। तत् (परमात्मने) उन कारण परमात्मा को ( नमो नमस्कार है ।
सहज आनन्द एवं सहज चैतन्यप्रकाशमय होने से जो अति महान हैं। तथा अनन्तधर्ममय होने से जो महिमा मण्डित हैं, उन कारणपरमात्मा को नमस्कार हो ।
इस श्लोक में 'सहजानन्द' और 'सहज चैतन्य प्रकाश' तथा 'अनन्त धर्मों में विश्रान्त' आदि सभी विशेषण शुद्धात्मा-कारणपरमात्मा के हैं; उसे ही सर्वप्रथम नमन किया है। इससे स्पष्ट है कि टीकाकार आचार्य १. ज्ञानदर्शन होने से
२. महिमामण्डित हैं ३. कारण परमात्मा