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पञ्चास्तिकाय परिशीलन अमृतचंद्रदेव शुद्धात्मा के प्रति ही अधिक समर्पित हैं, उनके हृदय में कारणपरमात्मा के प्रति अधिक झुकाव है; क्योंकि कारणपरमात्मा के आश्रय या अवलम्बन से ही तो अरहंत-सिद्धस्वरूप कार्य परमात्मा बनते हैं, आचार्यदेव को कारणपरमात्मा के साथ कार्यपरमात्मा अर्थ भी अभीष्ट है; अतः परोक्षरूप से कार्यपरमात्मा को भी नमन हो ही गया।
अब टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव जिनवाणी की स्तुति करते हैं ह्र दुर्निवार - नयानीक - विरोध - ध्वंसनौषधि। स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्त पद्धतिः ।।२।।
स्यात्कार है जीवन जिसका, जिनेन्द्र भगवान की ऐसी सिद्धान्त पद्धति अर्थात् स्यावाद शैली दुर्निवार नयचक्र में दिखाई देनेवाले विरोध रूपी रोग को नाश करने के लिये उत्कृष्ट औषधि है। वह सदा जयवन्त वर्ते, जीवित रहे।
'स्यात्' पद जिनदेव की अनैकान्तिक सिद्धान्त-पद्धति का जीवन है। स्यात् कथंचित्, वाद-कथन ह्न किसी अपेक्षा से अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप का कथन करना ही स्याद्बाद है, जो कि नयों के दुर्निवार विरोध का शमन करने में समर्थ है।
'प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक (अनन्त) धर्ममय है। वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य मानने में पूर्ण विरोध आता है तथा कथंचित् (द्रव्य अपेक्षा से) नित्यता और कथंचित् (पर्याय अपेक्षा से) अनित्यता मानने में किंचित् भी विरोध नहीं आता है' ह्र जिनवाणी स्यात्कार शब्द के द्वारा ऐसा स्पष्ट समझाती है।
इसप्रकार जिनेन्द्रभगवान की वाणी स्याद्वाद द्वारा सापेक्ष कथन से वस्तु का यथार्थ निरूपण करके, वस्तु में नित्यत्व-अनित्यत्वादि धर्मों में तथा उन-उन धर्मों को बतलानेवाले नयों में अबाधित रूप से अविरोध (सुमेल) सिद्ध करती है और उन धर्मों के बिना वस्तु की निष्पत्ति ही नहीं हो सकती है ह ऐसा निर्बाधरूप से स्थापित करती है।
कलश २-३-४-५-६
अब टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र इस शास्त्र की समय व्याख्या नाम से टीका रचने की प्रतिज्ञा करते हैं।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया।
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाभिधीयते ।।३।। जो टीका सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल-ज्योति की जननी है, दो नयों का आश्रय करनेवाली है। अब ऐसी समयव्याख्या नामक टीका संक्षेप से कही जाती है।
इस तीसरे श्लोक में समयव्याख्या नामक टीका द्वारा पंचास्तिकाय की व्याख्या; द्रव्य की व्याख्या एवं पदार्थ की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की गई है। इनका विशेष स्पष्टीकरण करने का संकल्प किया गया है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने 'समयव्याख्या' नामक टीका के मंगलाचरण के साथ ही तीन श्लोकों द्वारा पंचास्तिकायसंग्रह के प्रतिपाद्य को स्पष्ट कर दिया है। जो कि इसप्रकार है तू
'पंचास्तिकायषद्रव्यप्रकारेण प्ररूपणम् । पूर्वं मूलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम् ।।४।। जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्त्मनाम् । ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता ।।५।। ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना ।
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा।।६।। यहाँ सबसे पहले चौथे श्लोक के माध्यम से सूत्रकर्ता ने पंचास्तिकाय एवं षड्द्रव्य के रूप में मूलपदार्थों का निरूपण किया है।
इसके बाद पाँचवें श्लोक के माध्यम से दूसरे खण्ड में जीव और अजीव ह्न इन दो की विविध स्वभाववाली पर्यायोंरूप नवपदार्थों की व्यवस्था का प्रतिपादन किया है। ___इसके बाद छठवें श्लोक में दूसरे खण्ड के अन्त में चूलिका के रूप में तत्त्व के परिज्ञान-पूर्वक (पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य एवं नवपदार्थों के यथार्थ ज्ञानपूर्वक) त्रयात्मक मार्ग से (सम्यग्दर्शन-ज्ञान व चारित्र की एकतारूप मार्ग से) कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति का उल्लेख किया है।" .
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