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पञ्चास्तिकाय परिशीलन आते हैं, बुद्धिमान और मूर्ख होते हैं, खूबसूरत या बदसूरत हैं, रोगी या निरोगी होते हैं, राजा या रंक होते हैं ह्र इससे सिद्ध होता है कि जिसने पूर्व जन्म में जैसे पुण्य-पाप किए तदनुसार उन्हें इस जन्म में फल मिलता है तथा अपने भले-बुरे कर्मों के फल में ही अनुकूल-प्रतिकूल संयोग मिलते हैं। अत: परलोक और पुण्य-पाप का निषेध संभव ही नहीं है।
शरीर तो जड़ है, अजीव और भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति है। आत्मा में ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी और पूर्ण आनन्दमय होने की ताकत है। पर्याय में अल्पज्ञता होने पर भी मैं स्वयं अपने स्वभाव से पूर्ण ज्ञान-दर्शन और आनन्दमय हो सकता हूँ। सर्वप्रथम ऐसी प्रतीति करना चाहिए।"
पहले साधकदशा में अपूर्ण आनन्द था, तब अज्ञानी जीव ने पर में सुख व आनन्द माना था, पर अन्तर्दृष्टि से जब आत्मा का अनुभव हुआ एवं स्वभाव में आनन्द प्रगट हुआ तो पूर्ण आनन्द की प्रतीति हो गई। अत: हमें श्रद्धा में पर का कर्तृत्व छोड़कर, त्रिकाल चैतन्यस्वभाव का स्वामी होकर स्वसन्मुखता द्वारा सर्वज्ञता प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यही गुरुदेव द्वारा इस गाथा पर दिये गये प्रवचन का सार है। .
गाथा-३० विगत गाथा में कहा है कि ह्र केवली भगवान स्वयमेव सर्वज्ञत्वादि रूप से परिणमित होते हैं; उनके उस परिणमन में लेशमात्र भी इन्द्रियादि पर का अवलम्बन नहीं है।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि जो संसार में चार प्राणों वाले एकेन्द्रिय जीवों से लेकर दस प्राणवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तक ह्र दस प्राणों से जीवित रहते हैं; वे जीव हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जोहु जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।।३०।।
(हरिगीत) श्वास आयु इन्द्रिबलमय प्राण से जीवित रहे।
त्रय लोक में जो जीव वे ही जीव संसारी कहे||३०|| "जो मूलतः चार प्राणों से जीता है, जियेगा और पूर्वकाल में जीता था, वह जीव है। मूलतः प्राण चार हैं ह्र इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास । एकेन्द्रिय जीव की एक इन्द्रिय, आयु एवं कायबल व श्वासोच्छ्वास ह्र इसप्रकार जो चार प्राणों से जियें वे एक इन्द्रिय जीव हैं। दो इन्द्रिय जीवों के रसना इन्द्रिय बढ़ जाती है, इसी तरह असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक एक-एक इन्द्रिय बढ़ती जाती है तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के मन बढ़ जाता है। इसप्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के दस प्राण होते हैं।" ___ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की टीका में कहते हैं कि ह्र यह जीवत्व गुण की व्याख्या है। संसारी जीव के उपर्युक्त गाथा में निरूपित चार प्राण कहे हैं। उन चारों प्राणों में चित्सामान्यरूप अन्वयवाले भावप्राण होते हैं तथा पुद्गल सामान्यरूप अन्वय वाले स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु एवं स्वाच्छोस्वास रूप चार द्रव्य प्राण हैं।
प्रथम धर्म अनादिकाल से क्रम क्रम से सर्वज्ञ होते आये हैं। सिद्धलोक में ऐसे अनन्त सिद्ध सर्वज्ञ के रूप में विराजमान हैं।
इसप्रकार अनादिकाल, सिद्धलोक, महाविदेह क्षेत्र आदि को माने बिना सर्वज्ञ की स्वीकृति नहीं होती। अतः उक्त सभी बातों का निर्णय करके आपने सर्वज्ञ स्वभाव की प्रतीति करना ही प्रथम धर्म है।
- पूज्य गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १२४, पृष्ठ ९७९, दिनांक २१-२-५२