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पञ्चास्तिकाय परिशीलन के समान उपलब्ध न होने के कारण कोई सर्वज्ञ है ही नहीं हैं; किन्तु तुम्हारा यह मानना ठीक नहीं है; क्योंकि तुम्हारा कथन स्ववचन बाधित है।
आचार्य सर्वज्ञ का निषेध करने वालों से पूछते हैं कि सर्वज्ञ इस देश-काल में नहीं है कि तीन लोक व तीन काल में कहीं भी नहीं है। यदि इस देश-काल में ही नहीं है ह्र ऐसा कहते हो तो हमें स्वीकृत ही है और यदि तीनलोक व तीन काल में कहीं भी नहीं है ह्न ऐसा कहोगे तब तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये अन्यथा तुम तीनलोक को बिना देखे जाने सर्वज्ञ का निषेध कैसे कर सकते हो ?
कवि हीरानन्दजी निम्नांकित दोहे में कहते हैं कि ह्न
स्वयं चेत- सरवग्यता, सरवलोकदृग साध । सुख अनंत पावै सुकिय, बिन मूरत बिन बाधा । । १७५ । । उक्त दोहे का तात्पर्य यह है कि सिद्ध आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंत सुखी, विनमूर्ति और अव्याबाध गुणोंमय होते हैं। इसतरह सिद्धदशा में ज्ञान, दर्शन, सुख-सत्ता आदि सब सहजभाव से व्यक्त हैं तथा संसारदशा में जीव कर्म के निमित्तपने एवं अपनी तत्समय की योग्यता से इन्द्रियादि के निमित्त से कुछ-कुछ अपूर्ण जानते देखते हैं। ऐसी स्थिति में आत्मा मूर्तिक, बाधा सहित, अल्पज्ञान-दर्शनवाला होता है।
इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं ह्र “वे शुद्ध चिदात्मा स्वयं अपने स्वाभाविक भाव से ही सर्व को जाननेदेखनेवाले हैं, किसी अन्य के कारण या व्यवहार के कारण सर्वज्ञसर्वदर्शीपना नहीं होता। 'आत्मा ही सर्वज्ञस्वभावी है। अल्पज्ञता अथवा राग-द्वेष आत्मा की वस्तु नहीं है, संयोग तो भिन्न हैं ही' ह्र ऐसा ज्ञान करके स्वभाव में स्थिरता करने से ही सर्वज्ञता प्रगट होती है।
ज्ञान, दर्शन और आनन्द आत्मा का त्रिकाल स्वभाव है, वह सिद्धों
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जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
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को पूर्ण प्रगट हो गया है। ज्ञान, दर्शन और आनन्द ह्न तीनों अपने स्वकीय स्वभाव से ही प्रगट हुए हैं।
यहाँ निम्नांकित तीन प्रश्न उठते हैं। प्रथम यह कि ह्र जब सब जीवों का परिपूर्ण परमात्मस्वभाव है तो संसार में सबको वैसी परिपूर्ण दशा क्यों नहीं होती ? तथा दूसरा प्रश्न यह कि ह्न जो सिद्ध परमात्मा हुए हैं, वे किसप्रकार हुए हैं ? और तीसरा प्रश्न यह कि ह्न जो सिद्ध नहीं होते, वे किसकारण नहीं होते ?
इनके समाधान में कहा है कि ह्न अनादि से संसारी जीवों के मिथ्यात्वादि - संक्लेश भावों के कारण ही अपनी सर्वज्ञशक्ति आच्छादित हो रही है। ‘मैं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हूँ' ह्न ऐसा न मानकर अज्ञानी स्वयं को अल्पज्ञ, रागी और पामर मानता रहा है, यह मान्यता ही सर्वज्ञता का घात करनेवाली है, सर्वज्ञ दशा होने में यही बड़ी बाधा है। जब अपने सर्वज्ञस्वभाव की श्रद्धा होगी तभी वह सर्वज्ञदशा पर्याय में प्रगट हो जायेगी ।
विशेष बात यह है कि यह अल्पज्ञता और दुःख किसी कर्म आदि पर के कारण नहीं है, परद्रव्य तो निमित्तमात्र हैं, मुख्य कारण तो अज्ञानी संसारी जीव की मिथ्या मान्यता ही है।
पर्याय में ज्ञान का अल्पविकास (थोड़ा क्षयोपशमज्ञान) होने पर भी उस ज्ञानपर्याय को अन्तर्मुख करके “मैं सर्वविकासी शक्तिवान हूँ' ऐसा प्रतीति में लें तब तो पर्याय का विकास होकर सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है; किन्तु यदि प्रगट ज्ञान पर्याय को चैतन्य शक्ति में न जोड़कर पर में जोड़ता है तो ज्ञान का विकास रुक जाता है और वह पराधीन हो जाता है।
प्रश्न ह्न 'पर लोक है, पुण्य-पाप होते हैं' ह्र इसका प्रमाण क्या है ? समाधान ह्र बात यह है कि जीव जन्म से ही भले-बुरे संयोगों में