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पञ्चास्तिकाय परिशीलन परिणामस्वरूप होने से उपयोग लक्षित है। सद्भूत व्यवहार नय से पृथक्भूत चैतन्य परिणामस्वरूप होने से उपयोग लक्षित है। निश्चय से भावकर्मों के आस्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष पर्याय प्रकट करने में स्वयं समर्थ होने से प्रभु है तथा असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्यकर्मों के आस्रव आदि में स्वयं ईश होने से प्रभु है। निश्चय से पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से होनेवाले आत्म परिणामों का कर्तृत्व होने से कर्ता है और असद्भूत व्यवहारनय से भाव कर्मों के निमित्त से होनेवाले द्रव्यकर्मों का कर्त्ता है।
निश्चय से शुभाशुभ कर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुख-दुःख परिणामों का भोक्तृत्व होने से भोक्ता है, असद्भूत व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ततृत्व होने से भोक्ता है; निश्चय से लोक प्रमाण होने पर भी विशिष्ट अवगाह परिणाम की शक्तिवाला होने से नामकर्म से रचने वाले छोटे-बड़े शरीर में रहता सद्भूत व्यवहार से देहप्रमाण है।
असद्भूत व्यवहार से कर्मों के साथ एकत्व परिणाम के कारण मूर्त होने पर भी निश्चय से अरूपी स्वभाव वाला होने के कारण अमूर्त है; निश्चय से पुद्गलपरिणाम के अनुरूप चैतन्य परिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से कर्म संयुक्त' है, असद्भूत व्यवहारनय से चैतन्य परिणमन के अनुरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से 'कर्मसंयुक्त' है।
इसके भावार्थ में कहा है कि प्रारंभिक २६ गाथाओं में षड्द्रव्य और पंचास्तिकाय का सामान्य निरूपण करके इस सत्ताईसवीं गाथा में उनका विशेष निरूपण प्रारंभ किया गया है। उसमें प्रथम जीव का निरूपण प्रारंभ करते हुये इस गाथा में संसारस्थित आत्मा को जीव, चेतयिता, उपयोग लक्षणवाला, प्रभु, कर्ता इत्यादि विशेषण दिये हैं।
आचार्य जयसेन ने जीव के ९ विशेषणों में प्रथम जीवत्व को शुद्ध निश्चयनय से चैतन्य आदि शुद्ध प्राणों से, अशुद्ध निश्चयनय से
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
११३ क्षायोपशमिक आदि भावप्राणों से तथा अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्यप्राणों से जीनेवाला कहा है। इसीप्रकार चेतयिता को शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान चेतना वाला, अशुद्ध निश्चयनय से कर्म, कर्मफल रूप अशुद्ध चेतनावाला कहा है। उपयोगमयत्व को शुद्ध निश्चयनय से केवलज्ञानादि शुद्धोपयोगरूप तथा अशुद्ध निश्चयनय से मतिश्रुत ज्ञानादिरूप कहा है। ___इसीप्रकार प्रभू, कर्ता-भोक्ता, सदेह प्रमाणत्व को भी शुद्ध निश्चय नय एवं अशुद्ध निश्चयनय से प्ररूपित किया है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी ने इसप्रकार कहा है ह्र
(सवैया इकतीसा) निहचै और व्यौहार प्रानधारनौं जीव,
चेतनसकति तातै चेतना बखानी है। उपयोग योग भाव-दरव-करमकारी,
तत्वनि में मुख्य तातै प्रभुता समानी है ।। सुभासुभ कर्म फल भोगता सरीर लसै,
देह मात्र अवगाह मूरतीक प्रानी है। कर्मसंजोग धारी विविध भेद संसारी, मुक्त अविकारी तातें सुद्धता निदानी है ।।१५८।।
(दोहा) जे कुवादि मिथ्यामती, मानै नहिं सरवग्य । तिनकौं इह उपदेश सब, कहत जैनधरमग्य ।।१५९।।
उपर्युक्त पद्यों में कहा गया है कि ह निश्चय एवं व्यवहार प्राणों का धारक होने से जीव के जीवत्व है, चेतन की शक्ति से चेतयिता है, ज्ञानदर्शन से उपयोगमयी है तथा सब तत्त्वों में मुख्य होने से प्रभु है। शुभाशुभ कर्मों को भोगता है अतः भोक्ता है। देहमात्र अवगाही होने से
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