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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
जिनमत में सर्वज्ञदेव ने छह द्रव्य कहे हैं। उन द्रव्यों के बिना लोक की सिद्धि नहीं होती। जगत में निश्चय कालद्रव्य के बिना जीव- पुद्गल का परिणमन संभव नहीं और उनके परिणमन के बिना व्यवहारकाल की सिद्धि नहीं होती । इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि अपने ज्ञान में सूक्ष्मदृष्टि द्वारा युक्ति आदि से निर्णय करके इस कालद्रव्य को जाना जाता है। कालद्रव्य को मात्र जानने को कहा है; उपादेयरूप तो अपना एक चिदानंद ज्ञानस्वभाव ही है।
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जब जीव अपने को क्षणिक राग-द्वेष, पुण्य-पाप जितना ही मानता था तब तो उसको स्व-पर काल का भान भी नहीं था जहाँ अन्तर्मुख होकर चिदानंदस्वभाव का भान होने पर स्वकाल का पुरुषार्थ प्रकट हुआ, वहाँ उस स्वकाल में निमित्तभूत परकाल का ज्ञान भी हो गया । इसलिए जिसको वीतराग की आज्ञा माननी हो उसको सूक्ष्मदृष्टि से जगत में असंख्य कालाणु हैं ह्र ऐसा निर्णय करना चाहिए।"
इसप्रकार निश्चय एवं व्यवहारकाल की सिद्धि करते हुए अन्त में जीवद्रव्य के स्वचतुष्टय में भी जीव का जो 'स्वकाल' है, उसके भान से जब जीव अन्तर्मुख होकर चिदानन्द स्वभाव का भान करके पुरुषार्थ प्रगट करता है, तब स्वकाल में निमित्तभूत परकाल का ज्ञान भी यथार्थ हो जाता है। सम्पूर्ण कथन का यह तात्पर्य है ।
१. श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. ११८, पृष्ठ ९५३, दिनांक १९-२-५२
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गाथा - २७
विगत गाथा में कहा है कि काल की मर्यादा के बिना थोड़ा कालबहुत काल ह्र ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता; इसलिये काल की मर्यादा का कथन करना आवश्यक है तथा काल की मर्यादा पुद्गलद्रव्य के बिना नक्की नहीं होती, इसकारण पुद्गल परमाणु की मंद गति तथा सूर्य की चाल आदि के द्वारा समय, घड़ी, घण्टा आदि को परिभाषित किया जाता है। इसकारण व्यवहार काल की उत्पत्ति पुद्गल के निमित्त से होती है।
प्रस्तुत गाथा में जीवद्रव्य का विशेष निरूपण किया गया है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता व देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ।। २७ ।। (हरिगीत)
जीव है देह प्रमाण, और है उपयोगमय । अमूर्तकर्ता - भोक्ता 'प्रभु' कर्म से संयुक्त है ॥२७॥
आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोग लक्षित है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, देह प्रमाण है, अमूर्त है और कर्म संयुक्त है।
आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने उक्त गाथा को स्पष्ट करते हुए टीका में कहा हैं कि ह्र संसारदशा वाला आत्मा सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप हैं।
आत्मा निश्चय से भावप्राण को धारण करता है, इसलिये 'जीव' है तथा व्यवहार से द्रव्यप्राणों को धारण करता है; इसलिये 'जीव' है। निश्चय से चित्स्वरूप होने के कारण चेतयिता है और सद्भूत व्यवहार नय से चित्शक्तियुक्त होने से चेतयिता है। निश्चय से अपृथग्भूत चैतन्य