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पञ्चास्तिकाय परिशीलन कि सीमन्धर स्वामी की दिव्यध्वनि के बीच में यह आशीर्वचन किसको और क्यों ?
तीर्थंकर की वाणी के अतिशय से उनका तुरन्त ही समाधान भी हो गया। तदनुसार धर्मस्नेह से प्रेरित होकर वे चारण ऋद्धि के धारक मुनि आचार्य कुन्दकुन्द को आकाशमार्ग से विदेह क्षेत्र में विराजमान सीमन्धर स्वामी के समवशरण में ले गये। वहाँ से लौटकर आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुड़ों की रचना की। इन्हीं ८४ पाहुड़ों में से 'पंचास्तिकाय संग्रह' एक पाहुड़ है। यद्यपि इसमें पंच अस्तिकाय द्रव्यों की मुख्यता से कथन किया गया है, इसकारण इसका नाम पंचास्तिकाय है, फिर भी गौणरूप से काल द्रव्य की भी चर्चा है, जो अस्तिकाय नहीं है।
इस ग्रन्थ पर तात्पर्यवृत्ति नामक टीका लिखने वाले टीकाकार आचार्य जयसेन यह लिखते हैं कि - "कुन्दकुन्दाचार्य ने विदेह क्षेत्र में जाकर, समवशरण में उपस्थित रहकर विद्यमान अर्हन्त परमात्मा सीमन्धर स्वामी की साक्षात् दिव्यध्वनि सुनी, उनकी दिव्यवाणी द्वारा शुद्धात्मतत्व और वस्तुस्वातंत्र्य जैसे सिद्धान्तों को सुना और उनसे महिमा मण्डित होकर वे वहाँ से लौटकर भरत क्षेत्र में आये । यहाँ भव्यजीवों के भाग्योदय और हम सबकी भली होनहार से उन्हें ऐसा विकल्प आया कि 'जो निधि मुझे प्राप्त हुई है, क्यों न उसे सुपात्र पाठकों तक पहुँचाई जाये?'
यद्यपि वे अपने जागृत विवेक एवं श्रद्धा से यह जानते और मानते थे कि ह्र “मैं इसका कर्ता नहीं हूँ"; फिर भी भूमिकानुसार विकल्प आये बिना नहीं रहता। ऐसा ही कुछ उनके साथ हुआ और उनके द्वारा ८४ पाहुड़ों की रचना हो गई।
विश्वव्यवस्था और वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त जैनदर्शन के प्राण हैं। जिनागम में विविध आयामों से जो कुछ भी कहा गया है, सबका मूल आधार विश्वव्यवस्था के अन्तर्गत स्वतः परिणमित छह द्रव्य, सात तत्व और नव पदार्थ ही हैं। यही पंचास्तिकाय संग्रह ग्रन्थ की विषयवस्तु है। इन्हें जाने बिना प्रवचनसार और समयसार जैसे गंभीर ग्रन्थों की विषय
प्रस्तावना वस्तु भी समझ में नहीं आ सकती । एतदर्थ पंचास्तिकाय ग्रन्थ का अध्ययन अति आवश्यक है।
इस ग्रन्थ में प्रतिपादित अनादिनिधन स्वसंचालित विश्वव्यवस्था के अन्तर्गत कराया गया छह द्रव्यों के स्वरूप का ज्ञान वह संजीवनी है जो जैनदर्शन के प्राणभूत वस्तुस्वातंत्र्य को एवं स्वसंचालित विश्वव्यवस्था को जीवनदान देती है। अतः यह ग्रन्थ सर्वप्रथम स्वाध्याय करने योग्य है। इसकी प्राथमिक जानकारी के बिना जैनदर्शन के प्राणभूत अध्यात्म में प्रवेश पाना ही अति दुर्लभ है।
यद्यपि मूल ग्रन्थ की विषयवस्तु बद्धिगम्य है. संक्षिप्त है. सरल है: सामान्य स्वाध्यायी प्रायः पंचास्तिकाय की स्थूल परिभाषाओं से परिचित भी होते हैं; परन्तु इसके अन्तर्गत आया स्व-संचालित द्रव्यव्यवस्था का यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है, इसकारण इसे समझने के लिए बुद्धि का पैनापन तो अपेक्षित है ही, कर्ताबुद्धि आदि के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने मन-मस्तिष्क को कोरे कागज की तरह साफ सुथरा रखकर श्रद्धा से गंभीरतापूर्वक समझना भी अति आवश्यक है। ___ आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं इस संदर्भ में इस पंचास्तिकाय ग्रन्थ की अन्तिम गाथा (१७३) में कहते हैं कि “मेरे द्वारा जिनप्रवचन के सारभूत इस पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र को मार्ग की प्रभावना हेतु जिनप्रवचन की भक्ति से प्रेरित होकर कहा गया है।" ___ अन्तिम गाथा १७३ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इस बात को
और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्र “परमागम के अनुराग के वेग से चलायमान मनवाले मुझसे जिनप्रवचन के सारभूत इस पंचास्तिकाय संग्रह नामक ग्रन्थ की टीका लिखी गई है।"
इस ग्रन्थ के स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं; प्रथम श्रुतस्कन्ध खण्ड में षद्रव्य-पंचास्तिकाय का वर्णन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध खण्ड में नवपदार्थ पूर्वक मोक्षमार्ग का निरूपण है। इन्हें आचार्य अमृतचन्द्र ने 'समयव्याख्या' नामक टीका में 'श्रुतस्कन्ध' नाम से ही अभिहित किया है।
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