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पञ्चास्तिकाय परिशीलन द्वेष-मोह के वश हुआ है, इसलिए व्यवहार से जड़कर्मों से बँधा हुआ है ह्र ऐसा कहा जाता है तथा अशुद्ध निश्चयनय से ऐसा कहा जाता है कि आत्मा भावकों से बंधा है।
ध्यान रहे, जब जीव स्वयं अज्ञानभाव करता है, तब जो द्रव्य कर्मों का बंध होता, उस दशा में ऐसा कहा जाता है कि 'जीव जड़कर्मों से बँधा है।' ___जड़कर्म का अभाव करना आत्मा के अधिकार की बात नहीं है; परन्तु यदि आत्मा अपने चैतन्य स्वभाव की दृष्टि करे तो राग-द्वेष मोह का नाश होता है। राग-द्वेष-मोह के अभाव होने में द्रव्य कर्मों के अभाव का निमित्तपना होने से 'जीवों ने द्रव्य कर्मों का नाश किया' ह्न ऐसा कहा जाता है।
राग-द्वेष निमित्त हैं और जड़ कर्म नैमित्तिक हैं। आत्मा राग करता है, यदि ऐसा कहें तो आत्मा नैमित्तिक व जड़कर्म निमित्त कहलाते हैं; इसलिए विकारी पर्याय नैमित्तिक और जड़कर्म निमित्त हैं।
कोई यह मानता हो कि निमित्त हैं ही नहीं तो वह बात भी मिथ्या है तथा निमित्त से राग-द्वेष होते हैं ह ऐसा भी नहीं है। वास्तविकता यह है कि कर्म की पर्याय कर्म के कारण और राग की पर्याय राग के कारण होती है।
आत्मा त्रिकाली शुद्ध चिदानंद है, निमित्त पर हैं। आत्मा में जो राग-द्वेष होते हैं, आत्मा मात्र उतना नहीं है। आत्मा तो अनादि से शुद्ध है ह्र ऐसी दृष्टि होकर उसी में लीनता होने से मिथ्यात्व-रागादि का अभाव होता है; और रागादि का अभाव होने से कर्मों का भी नाश हो जाता है ह नया कर्म उसके कारण नहीं बँधता । राग-द्वेष का अभाव होने पर जो अनादि से नहीं था ऐसा सिद्धपद प्राप्त होता है। पर्यायदृष्टि से सिद्धपद नया प्राप्त हुआ हू ऐसा कहा जाता है।
जीवद्रव्य का उत्पाद-स्वरूप परिणमन (गाथा १ से २६)
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से नय दो प्रकार के हैं। इन दोनों नयों से वस्तु का स्वरूप बतलाया है।
इस गाथा में चार बोल कहे गये हैं ह्र १. द्रव्यदृष्टि से आत्मा में सिद्धस्वरूप-अनादि-अनंत है।
२. पर्यायदृष्टि से आत्मा में जो कभी नहीं हुई ह्र ऐसी नयी सिद्धपर्याय होती है।
३. द्रव्यदृष्टि से आत्मा में संसार है ही नहीं। ४. पर्यायदृष्टि से आत्मा में संसार अनादि का है, नया नहीं हुआ।
द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा की जाए तो जीवद्रव्य संसारपर्याय में होने पर सदा अविनाशी, टंकोत्कीर्ण, उत्पाद नाश से रहित सिद्धसमान है।"
इसप्रकार उपर्युक्त सभी दृष्टिकोणों के स्पष्टीकरण से यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिकनय या शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से जब देखते हैं तो उस आत्मवस्तु के त्रैकालिक स्वरूप दिखता है, जो पूर्णशुद्ध ही है और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से या व्यवहारनय से पर्याय को देखते हैं तो वही आत्मा विकारी दिखता है, अशुद्ध दिखता है।
ज्ञानी जीव अपने अनुभव से जानता है। आत्मा की अशुद्धदशा में उसके त्रैकालिक केवलज्ञानस्वभावी शुद्ध आत्मा को देख लेता है।
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१.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११४, पृष्ठ ९२६, दिनांक १३-२-५२