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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
वश हुआ था, इसलिए व्यवहार से जड़कर्मों से बंधा है, ऐसा कहा जाता था।
जैसे कि ह्र एक लम्बा बांस है, जो पूर्वार्द्ध भाग में विचित्र चित्रों से चित्रित है, उससे ऊपर का आधा भाग शुद्ध-साफ-सुथरा है, वह रंगबिरंगे चित्रों से चित्रित नहीं है; परन्तु वह ढंका है, इसकारण अज्ञानी भ्रान्तिवश बांस के नीचे के रंग-बिरंगे हिस्से को देखकर ऊपर के साफसुथरे रंग रहित बांस के हिस्से को भी चित्रित (अशुद्ध) मान लेता है; उसी प्रकार यह जीव व्यवहार से संसार अवस्था में मिथ्यात्व रागादि विभाव परिणामों के कारण अशुद्ध है, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से देखते हैं तो अंतरंग में स्वभाव से तो आत्मा केवलज्ञानादि स्वरूप से शुद्ध ही है; परन्तु अज्ञानी अभ्यन्तर में- त्रैकालिक ध्रुव स्वभावी केवलज्ञान स्वरूप में भी भ्रान्तिवश अशुद्धता मान लेता है। "
आचार्य जयसेन ने अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में भी बांस के उदाहरण से ऐसा ही समझाया है। वे कहते हैं कि जिसप्रकार जीव नीचे के उघड़े बांस को रंग-बिरंगा चित्रित देखकर ऊपर के ढंके हुए बांस को भी रंगबिरंगा मान लेता है, इसप्रकार वह सम्पूर्ण बांस को रंगा हुआ मान लेता है। वैसे ही अज्ञानी आत्मा के वर्तमान मलिनरूप को देखकर आभ्यन्तर में विद्यमान सिद्ध समान शुद्धस्वरूप को भी मलिन मान लेता है तथा जिसप्रकार चित्रित बांस को धो देने पर बांस साफ हो जाता है, उसीप्रकार ज्ञानी द्वारा आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान से आत्मा का सिद्ध समान शुद्ध स्वरूप जान लिया जाता है। सम्पूर्ण आत्मा को द्रव्यार्थिकन से शुद्ध मान लेता है।
तात्पर्य यह है कि अभूतपूर्व सिद्धस्वरूप जीवास्तिकाय नामक निर्विकल्प स्वसंवेदन से जाना हुआ त्रिकाल शुद्धात्मद्रव्य ही उपादेय है ह्र ऐसा ज्ञानी जानता है।
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सिद्ध होने की प्रक्रिया (गाथा १ से २६)
इसी बात को कवि हीरानन्दजी इसप्रकार कहते हैं ह्र (सवैया इकतीसा )
जैसें बेणुदंड एक दीरघ प्रचंड लसे,
पूरब अरथ भाग चित्र चित्र की है। ताही भाग दृष्टि देत सगरा असुद्ध दंड,
सुद्धता न भासे कहूँ सुद्ध भावलीने है ।।
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जैसें ताही दंड विषै ऊरध है खंड सुद्ध,
सारा खंड सुद्ध तातैं सुद्धभाव दीनै है । तैसें जीवदर्व सुद्धासुद्ध जानै भव्य,
मानै सुद्ध सारा द्रव्य मिथ्याभाव हीने है । । १२५ ।। जिसप्रकार लम्बे बांस का नीचे का आधा भाग विचित्र रंगों से चित्रित है, मलिन है और ऊपर का आधा भाग साफ (शुद्ध) है; परन्तु ढंका है; इसकारण अज्ञानी नीचे के भाग को देखकर ऊपर के ढंके हुए शुद्ध मार्ग को भी अशुद्ध (चित्रित) मान लेता है तथा ज्ञानी ऊपर के शुद्धस्वरूप को देखकर अनुमान लगा लेता है कि नीचे का भाग भी ऊपर के भाग की तरह ही स्वभावतः शुद्ध है, पूरा बांस साफ-सुथरा है। यह रंग-बिरंगे चित्र तो ऊपर-ऊपर हैं, जिन्हें हटाया जा सकता है। यह रंगबिरंगापन बांस का स्वभाव नहीं है। उसीप्रकार जीवद्रव्य जो संसारपर्याय शुद्धाशुद्ध रूप है, वह स्वभावतः तो शुद्ध ही है, ऐसी श्रद्धा से मिथ्याभाव का अभाव होकर सिद्धदशा प्रगट होती है।
इस गाथा का भाव गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इसप्रकार कहते हैं ह्र "संसारपर्याय के अभावस्वरूप उत्पन्न हुई सिद्धपर्याय सर्वथा असत का उत्पाद नहीं है।
आत्मा तो द्रव्यदृष्टि से अनादि से शुद्ध ही है, परन्तु पर्याय में अशुद्धता है। आत्मा अनादि से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के निमित्त से स्वयं राग