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________________ गाथा-५३ विगत गाथा ५१ एवं ५२ में बताया गया है कि ह्र आत्मा से सम्बद्ध ज्ञान-दर्शन भी आत्मद्रव्य से अभिन्न प्रदेश वाले होने के कारण अनन्य होने पर भी संज्ञादि व्यपदेश के कारणभूत विशेषों द्वारा प्रथक्पने को प्राप्त होते हैं; परन्तु वे स्वभाव से सदैव द्रव्य से अप्रथक् हैं। अब आगामी तीन गाथाओं में कर्तृत्वगुण का व्याख्यान है, प्रस्तुत गाथा में उन्हीं का उपोद्घात किया जाता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो। सब्भावदो अणंता, पंचग्गुणप्पधाणा य ।।५३।। (हरिगीत) है अनादि-अनन्त आतम पारिणामिक भाव से | सादि-सान्त के भेद पड़ते उदय मिश्र विभाव से ||५३|| जीव पारिणामिकभाव से अनादि-अनन्त है, उदय, उपशम एवं क्षयोपशम भावों की अपेक्षा सादि-सान्त है तथा क्षायिक भाव की अपेक्षा सादि-अनन्त है एवं जीव भाव से भी अनादि-अनन्त है। यहाँ टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र यह कहते हैं कि ह्र “जीव सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से अनादि-अनन्त है तथा औदयिक, औपशमिक एवं क्षायोपशमिक ह्र इन तीन भावों से सादि-सान्त है और जीव भाव से भी अनादि अनन्त है तथा क्षायिकभाव से सादि-अनन्त है। यहाँ गाथा में पंचगुणप्पधाणा' जो कहा ह्र उससे तात्पर्य यह है कि ह्र औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक ह्र इन पाँचों भावों को जीव के पंच प्रधानगुण कहे गये हैं।" । कवि हीरानन्दजी उपर्युक्त भाव को अपनी भाषा में कहते हैं कि ह्र जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) (दोहा) जीव अनादि-निधन कहै, सान्त अनन्त जु भाव। सत्ता रूप अनन्त है, पंचमुख्यगुण भाव ।।२६९ ।। (सवैया इकतीसा) सहज चैतन्य पारिणामिक स्वभाव करि, आदि-अन्त बिना जीव जग में बसतु है। औदयिक औपसम छायोपसमिक भाव तातें, सादि-सान्त साद्यनन्त छायिक रसतु है ।। सबही उपाधि गये छायक प्रगट भाव, साद्यनन्त बने तीकै मूढ़ता नसतु है। सत्ता अनन्ती जीव करम पंक लीन डौले, पंचभाव भाये सेती ग्यानी लै लसतु है।।२७० ।। (दोहा) जीव अभव्य अनन्त हैं, तिन" भव्य अनन्त । तिनतै बहुरि अभव्यसम भव्य अनन्त महंत ।।२७१ ।। पारिणामिक भाव की अपेक्षा जीव अनादि-अनन्त हैं तथा क्षायिकभाव से सादि-अनन्त हैं तथा सत्ता की अपेक्षा अनन्त हैं। सहज चैतन्य पारिणामिक भाव की अपेक्षा जीव अनादि-अनन्त है। औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा सादि-सान्त तथा क्षायिकभाव की अपेक्षा सादि अनंत है। जीव की सत्ता अनन्त होते हुए भी कर्म कीचड़ में फँसने से संसार में डोलता है तथा ज्ञानी होकर पंचमभाव के आश्रय सुशोभित होता है। अभव्य जीव अनन्त हैं, भव्य (मुक्ति की पात्रतावाले) उन अभव्यों से भी अनन्त गुणे अधिक है तथा वे जीव जो भव्य होकर भी अभव्य के समान ही हैं, क्योंकि जिसप्रकार सती विधवा स्त्री के सन्तान की पात्रता (111)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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