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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
रस-गंध-वर्ण वास्तव में परमाणु के प्ररूपित किए जाते हैं, दर्शाये जाते हैं। वे वर्ण आदि परमाणु से अभिन्न प्रदेश वाले होने के कारण अभिन्न (अनन्य) होने पर भी संज्ञा, संख्या आदि रूप से कथन करने के कारण विशेषों द्वारा अन्यत्व (भिन्नता) को प्रकाशित करते हैं, दर्शाते हैं। इसप्रकार आत्मा से सम्बद्ध ज्ञान दर्शन भी आत्मद्रव्य से अभिन्न प्रदेश होने के कारण उनसे अनन्य (एकरूप) होने पर भी, संज्ञा, संख्या आदि कथन के कारणपने के कारण विशेषों द्वारा प्रथकता को प्राप्त होते हैं, परन्तु स्वभाव से सदैव अप्रथकपने को ही धारण करते हैं।
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आचार्य जयसेन इस गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में दृष्टान्त सहित गुणगुणी में कथंचित अभेद बताते हुए उनकी एकता का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि ह्न निश्चयनय की अपेक्षा से परमाणुओं में कहे गये वर्णरस-गन्ध-स्पर्श गुण प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य से प्रथक नहीं हैं। और ये ही चारों वर्णादि गुण व्यवहार की अपेक्षा संज्ञा, संख्या आदि भेदों से प्रथक्त्व को भी प्रगट करते हैं।
कवि हीरानन्दजी इस सम्बन्ध में कहते हैं ह्र
( दोहा )
परस वरन रस गन्ध ए, पुद्गल दरब विशेष ।
दरब माहिं जु अनन्य हैं, अन्य प्रकाशक देख ।। २६५ ।। दरसन - ज्ञान तथा लसै जीव अनन्य सुभाव । प्रथक् भाव व्यपदेस तैं, निजतैं नहिं प्रकटाव ।। २६६ ।। (सवैया इकतीसा ) रूपरसगन्ध-फास, पुद्गलानुरूपी हैं,
एक अविभक्त परदेस तैं कहाये हैं । अनु सो अनन्य संज्ञा व्यपदेस सेती अन्य,
अन्य परकार तातैं ताही में लहाये हैं । ऐसें ही ज्ञान दर्शन सुभाव आत्मा है,
आप तैं अनन्य देस एकता दिखाये हैं ।
( 110 )
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
व्यपदेस आदि भेद तातैं भेदसा दिखाये हैं,
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देस भेद बिना दोनों जिननें बताये हैं ।। २६७ ।। ( दोहा )
जीव दरव गुन कहै दरसन ग्यान अनन्य । भेदभाव विवहार मैं बरतै भेद अगम्य ।। २६८ ।। उपर्युक्त दोहा २६६ एवं सवैया २६७ में कहा है कि “स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ह्न ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। ये पुद्गल द्रव्य में अनन्यभाव से विद्यमान हैं । दर्शन-ज्ञान ह्न ये जीव के अनन्य स्वभाव हैं। कथन की अपेक्षा इनमें संज्ञा, संख्या आदि भेद हैं, पर ये निज स्वभाव से प्रथक् नहीं है।
इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शन है, और ये गुण भी आत्म द्रव्य से अनन्य हैं। कथन की अपेक्षा इनमें संज्ञा, संख्या आदि भेद हैं, आत्म वस्तु अभेद हैं ह्र ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
उपर्युक्त दोहा २६८ में कहते हैं कि ह्र दर्शन-ज्ञान जीव द्रव्य के गुण हैं और वे जीव से अनन्य हैं। गुण भेदादि सब व्यवहार से कहे जाते हैं, जो कि अनगिनत हैं।"
इसी भाव को दर्शाते हुए श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “सर्वज्ञ भगवान का मत अनेकान्त है, जो दोनों नये से सिद्ध होता है । इसलिए निश्चय-व्यवहार, भेद - अभेद, गुण-गुणी का विशेष स्वरूप परमागम से जानने योग्य है।
आत्मा दर्शन पर्याय से देखता है एवं ज्ञान पर्याय से जानता है ह्र ऐसा भेद करना व्यवहार है। "
इसप्रकार आत्मा-द्रव्य सहज शुद्ध चेतन पारिणामिक भावों से युक्त अनादि अनंत है। स्वाभाविकभाव की अपेक्षा जीव तीनों कालों में टंकोत्कीर्ण अविनाशी है और वहीं जीव उदय, क्षयोपशम व उपशम भावों की अपेक्षा देखें तो सादि-सात है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४६, पृष्ठ ११६७, दिनांक १९-३-५६