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नियमसार अनुशीलन (हरिगीत) उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है। वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है। उल्लघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभावको।
हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एकस्वभाव को ||७१|| इसप्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है ह्र ऐसी महती नय-पक्षकक्षा का उल्लंघन करके ज्ञानी जीव अन्तर्बाह्य से समतारस स्वभाववाले अनुभूतिमात्र अपने भाव को प्राप्त करते हैं।
ज्यों-ज्यों नयों के विस्तार में जाते हैं, त्यों-त्यों मन के विकल्प भी विस्तार को प्राप्त होते हैं, चंचलचित्त लोकालोक तक उछलने लगता है। ज्ञानी जीव इसप्रकार के नयों के पक्ष को छोड़कर, समरसी भाव को प्राप्त होकर, आत्मा के एकत्व में अटल होकर, महामोह का नाश कर, शद्ध अनुभव के अभ्यास से निजात्मबल प्रगट करके पूर्णानन्द में लीन हो जाते हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि नयविकल्पों के विस्तार से उपयोग समेट कर जब आत्मा स्वभावसन्मुख होकर, निर्विकल्पज्ञान रूप परिणमित होता है; तभी अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है।।७।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथाहि लिखकर एक छन्द स्वयं भी लिखते हैं; जो इसप्रकार है तू
(मंदाक्रांता) मुक्त्वा जल्पं भवभयकर बाह्यमाभ्यन्तरं च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् । ज्ञानज्योति:प्रकटितनिजाभ्यन्तरांगान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ।।२५९ ।।
(हरिगीत ) संसारभयकर बाह्य-अंतरजल्पतज समरसमयी। चित्चमत्कारी एक आतम को सदा स्मरण कर। ज्ञानज्योति से अरे निज आतमा प्रगटित किया। वह क्षीणमोही जीव देखे परमतत्त्व विशेषतः ।।२५९||
गाथा १५०: निश्चय परमावश्यक अधिकार
१३३ भवभय करनेवाले बाह्य और अभ्यन्तर जल्प को छोड़कर समतारसमय एक चैतन्य चमत्कार का सदा स्मरण करके ज्ञानज्योति द्वारा जिसने निज अभ्यन्तर अंग प्रगट किया है तू ऐसा वह अन्तरात्मा मोह क्षीण होने पर किसी अद्भुत परमतत्त्व को अन्तर में देखता है।
इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“याद किया हुआ शास्त्रपाठ, बाह्य वाणी जड़ है, उसमें पुण्य, पाप या धर्म कुछ भी नहीं होता। अन्दर में भवभय उत्पन्न करनेवाले पुण्य-पाप के विकल्पों की रुचि छोड़कर, सर्वप्रकार के राग और वचन को छोड़कर ज्ञानी बाह्य अवलम्बन रहित, नित्य समतारसमय एक चैतन्य चमत्कार का निरन्तर स्मरण करता है। ज्ञानी बाह्य चमत्कार की तुच्छता जानता है, अतः देव-देवी मंत्रादि किसी भी चमत्कार को नहीं चाहता, राग तथा संयोग की किञ्चित् भी महिमा नहीं करता। ज्ञानी ने तो अन्तर्मुख ज्ञानज्योति द्वारा निज अन्तरंग अंग/स्वरूप प्रगट किया है। और जिसके पुण्य - शुभराग व्रतादि आस्रव की रुचि है, उसने बाह्य अंग (स्वरूप) प्रगट किया है, परन्तु वह स्व नहीं है, वह तो विरोधी है, चैतन्य की जाग्रति को लूटनेवाला है। उसका सच्चा अन्तरंग तो त्रिकाल निर्मल चैतन्यस्वरूप है और उसके आश्रय से निर्मल सम्यग्दर्शन-ज्ञान-शांति प्रगट होती है। उससे भिन्न पुण्य-पाप राग का भाव बहिरंग है।"
उक्त छन्द में मात्र यही कहा है कि सच्चे सन्त तो अन्तर्बाह्य जल्पों को, विकल्पों को छोड़कर समतारसमय चैतन्यचमत्कार का स्मरण करते हैं। ज्ञानज्योति द्वारा मोह क्षीण होने पर अन्तरात्मा अपने आत्मा को देखते हैं, उसी में जमते-रमते हैं।।२५९।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९७