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नियमसार अनुशीलन को साक्षात् जोड़ता है, उसका यह निजभाव ही योग है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है।
'जैन' यह कोई पक्ष या सम्प्रदाय नहीं है, बल्कि त्रिकाल अबाधित वस्तुस्थिति है। सर्वज्ञकथित वस्तुस्वरूप भी ऐसा ही है ह ऐसा अपने को अपने ज्ञान द्वारा ही सचोट भासित होना चाहिये । निर्णीत तत्त्वों के ज्ञान बिना सामायिक, भक्ति, योग आदि एक भी धर्मक्रिया व्यवहार से भी यथार्थ नहीं होती।" ____ इस छन्द में भी गाथा और टीका में समागत भाव को ही दुहराया गया है। कहा गया है कि उल्टी मान्यतारूप दुराग्रह को छोड़कर जिनवर कथित, गणधरदेव द्वारा निरूपित, आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध, उपाध्यायों द्वारा पढ़ाया गया, मुनिराजों द्वारा जीवन में उतारा गया तथा ज्ञानी श्रावकों द्वारा समझा-समझाया गया एवं भव्यजीवों के आगामी भवों का अभाव करनेवाला यह तत्त्वज्ञान ही परम शरण है। इसमें लगा उपयोग ही योग है।
अतः हम सभी को जिनवाणी का गहराई से अध्ययन कर, उसके मर्म को ज्ञानीजनों से समझ कर, अपने उपयोग को निज भगवान आत्मा के ज्ञान-ध्यान में लगाना चाहिए। सुख व शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है।।२३०।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११४६-११४७
नियमसार गाथा १४० परमभक्ति अधिकार की इस अन्तिम गाथा में यह बताया जा रहा है कि ऋषभादि सभी जिनेश्वर इस योगभक्ति के प्रभाव से मुक्तिसुख को प्राप्त हुए हैं। अत: हमें भी इसी मार्ग में लगना चाहिए। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं । णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।।
(हरिगीत) वृषभादि जिनवरदेव ने पाया परम निर्वाण सुख।
इस योगभक्ति से अतः इस भक्ति को धारण करो।।१४०।। ऋषभादि जिनेश्वर इस उत्तम योगभक्ति करके निर्वृत्ति सुख को प्राप्त हुए हैं। इसलिए तुम भी इस उत्तम योगभक्ति को धारण करो।
टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह भक्ति अधिकार के उपसंहार का कथन है।
इस भारतवर्ष में पहले राजा नाभिराज के पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक के चौबीसों तीर्थंकर परमदेव सर्वज्ञवीतरागी हुए हैं।
जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई है ह्र ऐसे ये महादेवाधिदेव परमेश्वर ह्र सभी तीर्थंकर यथोक्त प्रकार से निज आत्मा के साथ संबंध रखनेवाली शुद्ध निश्चय योग की उत्कृष्ट भक्ति करके मुक्त हुए हैं और वहाँ मुक्ति में परम निर्वाणरूपी वधू के अति पुष्ट स्तन के गाढ़ आलिंगन से सर्व आत्मप्रदेश में अत्यन्त आनन्दरूपी परमामृत के पूर से परिपुष्ट हुए हैं।
इसलिए हे प्रगट भव्यत्व गुणवाले महाजनो ! तुम निज आत्मा को परम वीतरागी सुख देनेवाली इस योगभक्ति को निर्मल भाव से करो।"
___ पर्यायों की परिवर्तनशीलता वस्तु का पर्यायगत स्वभाव होने से आत्मार्थी के लिए हितकर ही है; क्योंकि यदि पर्यायें परिवर्तनशील नहीं होतीं तो फिर संसारपर्याय का अभाव होकर मोक्षपर्याय प्रकट होने के लिए अवकाश भी नहीं रहता । अनन्तसुखरूप मोक्ष-अवस्था सर्वसंयोगों के अभावरूप ही होती है। यदि संयोग अस्थाई न होकर स्थायी होते तो फिर मोक्ष कैसे होता? अत: संयोगों की विनाशीकता भी आत्मा के हित में ही है।
ह्र बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-२८
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