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नियमसार अनुशीलन अपने शद्ध आत्मा का वीतरागी श्रद्धान-ज्ञान ही निश्चयभक्ति है और देव-शास्त्र-गुरु के प्रति बहुमान का भाव व्यवहारभक्ति है।'
यहाँ पर्याय के अभिमुख होने के लिए नहीं कहा है; परन्तु पर्यायबुद्धि छोड़कर, पर्याय को त्रिकाली तत्त्व के अभिमुख करने के लिए कहा है।
जो जीव त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख होकर गुण-गुणी भेद की कल्पना से भी निरपेक्ष होकर रत्नत्रय में आत्मा को स्थापित करता है, वह जीव मोक्ष की भक्ति करता है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मोक्षमार्ग में आत्मा को स्थापित करना अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धारण करना ही निश्चय भक्ति है, निवृत्ति भक्ति है, निर्वाण भक्ति है। इसी निश्चय निर्वाण भक्ति से निज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है।।१३६।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(स्रग्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् नित्ये निर्मुक्तिहेतौ निरुपमसहजज्ञानबक्शीलरूपे । संस्थाप्यानंदभास्वन्निरतिशयगृहं चिच्चमत्कारभक्त्या प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।२२७।।
(हरिगीत ) शिवहेतु निरुपम सहज दर्शन ज्ञान सम्यक् शीलमय। अविचल त्रिकाली आत्मा में आत्मा को थाप कर|| चिच्चमत्कारी भक्ति द्वारा आपदाओं से रहित।
घर में बसें आनन्द से शिव रमापति चिरकाल तक||२२७ ।। मुक्ति के हेतुभूत निरुपम सहज ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप इस अविचलित महा शुद्ध रत्नत्रयरूप आत्मा में आत्मा को वस्तुत: भली भांति स्थापित करके यह आत्मा चैतन्यचमत्कार की भक्ति द्वारा, जिसमें १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११३०
२. वही, पृष्ठ ११३१
गाथा १३६ : परमभक्ति अधिकार से समस्त आपदायें दूर हो गई हैं तथा जो आनन्द से शोभायमान है ह्र ऐसे सर्वश्रेष्ठ घर को प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धरूपी स्त्री का स्वामी होता है।
इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "सर्वप्रथम तो यह निर्णय करना चाहिये कि ध्रुवस्वभाव की सन्मुखता से ही मेरा कल्याण होगा और ऐसे निर्णयपूर्वक अपने ध्रुवस्वभाव के सन्मुख होकर/ध्रुवस्वभाव में लीन होकर अपना कल्याण करना चाहिये।
जब यह आत्मा सम्यक्प्रकार से आत्मा की भक्ति करता है; तब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, निरुपाधिक आनन्द से सुशोभित शाश्वत घर को प्राप्त करता है अर्थात् वह मुक्तिरूपी स्त्री का स्वामी होता है।"
इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा में स्वयं के आत्मा को स्थापित करनेवाले आत्मा को इस परमभक्ति द्वारा निजघर की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि वह आत्मा मुक्तिरूपी वधुका स्वामी होता है,मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर अनन्तकाल तक अनन्त शाश्वत सुख का उपभोग करता है||२२७॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११३४
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_वैराग्यवर्धक बारह भावनाएँ मुक्तिपथ का पाथेय तो हैं ही, लौकिक जीवन में भी अत्यन्त उपयोगी हैं। इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों से उत्पन्न उद्वेगों को शान्त करनेवाली ये बारह भावनाएँ व्यक्ति को विपत्तियों में धैर्य एवं सम्पत्तियों में विनम्रता प्रदान करती हैं, विषय-कषायों से विरक्त | एवं धर्म में अनुरक्त रखती हैं, जीवन के मोह एवं मृत्यु के भय को क्षीण करती हैं, बहुमूल्य जीवन के एक-एक क्षण को आत्महित में संलग्न रह सार्थक कर लेने को निरन्तर प्रेरित करती हैं; जीवन के निर्माण में इनकी उपयोगिता अंसदिग्ध है।
ह्न बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-२