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नियमसार अनुशीलन प्रसिद्ध है, गुप्त नहीं है। स्वभाव का निर्णय कर स्वभाव में रमणतापूर्वक वीतरागता प्रगट की है ह्र यह बात प्रसिद्ध है, प्रगट पूर्ण पर्याय प्रसिद्ध है।'
जिसप्रकार भ्रमर फूल का रस चूसते हैं; उसीप्रकार भगवान भी स्वभाव के आश्रय से उत्पन्न पूर्णदशारूपी रमणी के रमणीय मुखकमल का आनन्द रस पीने के लिए भ्रमर समान हैं। पर्याय में से आनन्द का झरना बहता है।
इसप्रकार सिद्ध भगवान का स्वरूप पहिचान कर जो जीव सिद्ध भगवान की भक्ति करते हैं, उनके व्यवहार से निर्वाणभक्ति होती है।"
उक्त छन्द में यह कहा गया है कि अरहंत भगवान की भक्ति तो मनुष्य व देवगणों द्वारा समवशरण में उपस्थित होकर प्रत्यक्ष की जा सकती है, पर सिद्ध भगवान की भक्ति तो परोक्षरूप से ही करना होती है; क्योंकि लोकाग्रवासी और अशरीरी होने से उनका दर्शन इस मध्यलोक में प्रत्यक्ष संभव नहीं है।
सदा कल्याणस्वरूप सिद्ध भगवान सर्वश्रेष्ठ तो हैं ही, सर्वजन प्रसिद्ध भी हैं तथा मुक्ति में प्राप्त होनेवाले अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का निरन्तर अनुभव करते रहते हैं ।।२२६।।
नियमसार गाथा १३६ अब इस १३६वीं गाथा में निज परमात्मा की भक्ति का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती। तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं ।।१३६।।
(हरिगीत) जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ति निवृत्ति की करें।
वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें।।१३६।। मोक्षमार्ग में अपने आत्मा को भलीभाँति स्थापित करके निर्वाण भक्ति करनेवाला जीव उस निर्वाण भक्ति से असहाय गुणवाले अपने आत्मा को प्राप्त करता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह निज परमात्मा की भक्ति के स्वरूप का कथन है। निरंजन निज परमात्मा के आनन्दरूपी अमृत को पीने के लिए अभिमुख यह जीव; भेदकल्पना निरपेक्ष निरुपचार रत्नत्रयात्मक निर्विकारी मोक्षमार्ग में, अपने आत्मा को, भले प्रकार स्थापित करके; निर्वृत्ति के अर्थात् मुक्तिरूपी स्त्री के चरण कमलों की परम भक्ति करता है; उस कारण से वह भव्य जीव भक्ति गुण द्वारा, निरावरण सहज ज्ञान गुणवाला होने से, असहाय गुणात्मक निज आत्मा को प्राप्त करता है।" ____ इस गाथा और इसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"भक्ति दो प्रकार की होती है, एक निश्चयभक्ति और दूसरी व्यवहारभक्ति। चैतन्यस्वभाव के निर्विकल्प श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक उसी में स्थिर होना, परमात्मा की निश्चयभक्ति है तथा ऐसी निश्चयभक्तिपूर्वक बीच-बीच में जो शुभराग आता है. वह व्यवहारभक्ति है।'
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११२८ २. वही, पृष्ठ ११२८ ३. वही, पृष्ठ ११२८
इन देहादि परपदार्थों से भिन्न निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होना ही एक अभूतपूर्व अद्भुत क्रान्ति है, धर्म का आरम्भ है, सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है, साक्षात् मोक्ष का मार्ग है, भगवान बनने, समस्त दुःखों को दूर करने और अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।
ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-५१
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११२९-११३०