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नियमसार अनुशीलन "भगवान आत्मा स्वयं परमानंदमय है, उसमें त्रिकाल आनन्द तथा अमृत भरा है। ह ऐसे आनन्द सरोवर में डुबकी लगाकर इसी में लीन होने से जिनकी बुद्धि धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परिणमी है, स्वभाव में स्थिर होते ही जिन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट हुए हैं ह्र ऐसा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव विशालतत्त्व को अत्यन्त प्राप्त करता है।
प्रश्न :ह्न उस विशालतत्त्व का स्वरूप क्या है?
उत्तर : अनंत दुःखसमूह से रहित ह ऐसे त्रिकालीतत्त्व में तो दुःख है ही नहीं, तथा उसके आश्रय से प्रगट होनेवाली पर्याय में भी दुःख नहीं है और वह परमानंदमय महातत्त्व मन-वचन के मार्ग से अगोचर हैं ह्न ऐसे तत्त्व को, अन्तर में एकाग्रता के द्वारा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव प्राप्त करता है अर्थात् प्रगट करता है।
देखो, इसमें कोई बाह्यक्रिया की चर्चा नहीं; परन्तु परमानंदमय आत्मतत्त्व के आश्रयपूर्वक उसी में बुद्धि को (ज्ञानोपयोग को) लगाना एकाग्र करना ही मोक्ष की क्रिया है। इसके अलावा जितनी भी पुण्यपाप आदि विकारी क्रियायें हैं, वे सब तो मोक्षमार्ग के विपरीत क्रियायें हैं, मोक्षमार्ग को काटनेवाली क्रियायें हैं।"
धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परिणमित आत्मा ही परमसमाधि में स्थित है; उन्हें सदा सामायिक ही है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस परमसमाधि अधिकार की बारह गाथाओं में से आरंभ की दो गाथाओं में तो यह कहा है कि जो वचनोच्चारण क्रिया को छोड़कर संयम, नियम, तप तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यानपूर्वक वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसे परमसमाधि होती है।
उसके बाद एक गाथा में यह कहा कि समताभाव रहित श्रमण के वनवास, कायक्लेश, उपवास, अध्ययन, मौन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं।
इसके बाद ९ गाथाओं में यह कहा है कि सर्व सावध से विरत, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०८५-१०८६
गाथा १३३ : परमसमाधि अधिकार त्रिगुप्तिधारक, इन्द्रियजयी, त्रस-स्थावर जीवों के प्रति समभाव धारक, संयम, नियम और तप में आत्मा के समीप रहनेवाले, राग-द्वेष से अविकृत चित्तवाले, आर्त और रौद्रध्यान से बचनेवाले, पुण्य और पाप भाव के निषेधक, नौ नोकषायों से विरत और धर्म व शुक्लध्यान के ध्याता मुनिराजों का सदा ही सामायिक है, एकप्रकार से वे सदा परम समाधि में ही लीन हैं।
सम्पूर्ण अधिकार का सार इस चन्द पंक्तियों में ही समाहित हो जाता है। यदि एक वाक्य में कहना है तो कह सकते हैं कि निश्चयरत्नत्रय से परिणत तीन कषाय के अभावरूप शद्ध परिणतिवाले सम्यग्दृष्टि भावलिंगी संत और शुद्धोपयोगी संत हये सभी सदा सामायिक में ही है, सदा समाधिस्थही हैं।
विशेष ध्यान देने की बात यह है कि शुद्धोपयोगदशा में तो सभी सन्त समाधिस्थ हैं ही, तीन कषाय के अभाव से उत्पन्न शुद्धपरिणति वाले संत शुभोपयोग के काल में भी समाधिस्थ ही हैं, सदा सामायिक में ही हैं। यहाँ यह अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है। ____ एक बात और भी समझने लायक है कि ऐसा नहीं है कि आँखें बन्द कर बैठ गये और सामायिक या समाधि हो गई। सदा सामायिक या समाधिवाले व्यक्ति को सर्व सावद्य से विरत, त्रिगुप्ति का धारक, इन्द्रियजयी, त्रस-स्थावर जीवों के प्रति समभाव का धारक, संयम, नियम और तप में आत्मा के समीप रहनेवाला, राग-द्वेष से अविकृत चित्तवाला, आर्त्त-रौद्रध्यान से विरत, पुण्य-पाप का निषेधक, नोकषायों से विरत और धर्मध्यान-शुक्लध्यान का ध्याता भी होना चाहिए।
उक्त योग्यताओं के बिना वह सदा सामायिकवाला या समाधिस्थ नहीं हो सकता।
अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य के समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमसमाधि अधिकार नामक नौवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ |२१९||
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