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नियमसार गाथा १३३ यह गाथा परमसमाधि अधिकार के समापन की गाथा है। इसमें धर्मध्यान और शुक्लध्यान करनेवालों को सामायिक स्थायी है ह्र यह कहा गया है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
जो दुधम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३३।।
(हरिगीत) जो धर्म एवं शक्लध्यानी नित्य ध्यावें आतमा ।
उन वीतरागी सन्त को जिन कहें सामायिक सदा।।१३३|| जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान को नित्य ध्याता है; उसे सामायिक स्थायी है ह्र ऐसा केवली के शासन में कहा है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह परमसमाधि अधिकार के उपसंहार का कथन है।
जो पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन का लोलुपी परमजिन योगीश्वर; अपने आत्मा के आश्रय से होनेवाले निश्चय धर्मध्यान द्वारा तथा सम्पूर्ण विकल्पजाल से मुक्त निश्चय शुक्लध्यान द्वारा; अखण्ड, अद्वैत, चिविलास लक्षण, अक्षय आनन्द सागर भगवान आत्मा में मग्न होनेवाले, सम्पूर्ण बाह्यक्रियाकाण्ड से पराङ्गमुख; शाश्वतरूप स्वात्मनिष्ठ निर्विकल्प परम समाधिरूप सम्पत्ति के कारणभूत, सदाशिवस्वरूप आत्मा को निरन्तर ध्याता है; उसे वास्तव में जिनेश्वर शासन से निष्पन्न हुआ, नित्य शुद्ध, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त परमसमाधिरूप शाश्वत सामायिक व्रत है।"
उक्त गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “बाह्यपदार्थों की रुचि छोड़कर केवलज्ञान का लोलुपी होकर अन्तर में एकाग्र हुए हैं ह्र ऐसे मुनिराजों को धर्मध्यान-शुक्लध्यानरूप
गाथा १३३ : परमसमाधि अधिकार सामायिक होती हैं और जिन्हें बाह्यपदार्थों के प्रति लोलुपता पड़ी है, उनके धर्मध्यान-शुक्लध्यानरूप सामायिक नहीं होती। ज्ञान-दर्शन की उग्र भावनापूर्वक आत्मा में लीन होना ही सामायिक की क्रिया है। ____ जो मुनिराज बाह्यपदार्थों की रुचि छोड़कर केवलज्ञान का लोलुपी होकर अन्तर में एकाग्र हुए हैं ह्र ऐसे मुनिराजों को धर्मध्यान-शुक्लध्यानरूप सामायिक होती है और जिन्हें बाह्यपदार्थों के प्रति लोलुपता पड़ी है, उनके धर्मध्यान-शुक्लध्यानरूप सामायिक नहीं होती।
ज्ञान-दर्शन की उग्र भावनापूर्वक आत्मा में लीन होना ही सामायिक की क्रिया है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि सच्ची सामायिक और सच्ची समाधि तो धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लगे सन्तों को ही होती है।।१३३।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार हैह्न
(मंदाक्रान्ता ) शुक्लध्याने परिणतमति: शुद्धरत्नत्रयात्मा धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन् । प्राप्नोत्युच्चैरपगतमहदुःखजालं विशालं भेदाभावात् किमपि भविनां वाङमनोमार्गदूरम् ।।२१९।।
(हरिगीत) इस अनघ आनन्दमय निजतत्त्व के अभ्यास से | है बुद्धि निर्मल हुई जिनकी धर्म शुक्लध्यान से ।। मन वचन मग से दूर हैं जो वे सखी शदातमा।
उन रतनत्रय के साधकों को प्राप्त हो निज आतमा ||२१९|| मन-वचन मार्ग से दूर, अभेद, दुःखसमूह से रहित विशाल आत्म तत्त्व को वे मुनिराज प्राप्त करते हैं कि जो पुण्य-पाप से रहित, अनघ, परमानन्दमय आत्मतत्त्व के आश्रय से धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप शुद्धरत्नत्रयरूप में परिणमित हुए हैं।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०८३