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नियमसार गाथा १६७ विगत गाथा में यह कहा गया है कि केवली भगवान आत्मा को देखते-जानते हैं, पर को नहीं ह निश्चयनय के इस कथन में कोई दोष नहीं है। अब इस गाथा में केवलज्ञान का स्वरूप समझाते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ।।१६७।।
(हरिगीत) चेतन-अचेतन मूर्त और अमूर्त सब जग जानता।
वह ज्ञान है प्रत्यक्ष अर उसको अतीन्द्रिय जानना ।।१६७।। मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों को, स्व को, सभी को देखनेजाननेवालों का ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह केवलज्ञान के स्वरूप का व्याख्यान है। __ छह द्रव्यों में पुद्गल को मूर्तपना और शेष पाँच द्रव्यों को अमूर्तपना है तथा जीव को चेतनपना और शेष पाँच को अचेतनपना है। त्रिकालवर्ती मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन स्वद्रव्यादि समस्त द्रव्यों को निरन्तर देखनेजाननेवाले भगवान श्रीमद् अरहंत परमेश्वर का अतीन्द्रिय सकल विमल केवलज्ञान; क्रम, इन्द्रिय और व्यवधान रहित सकलप्रत्यक्ष है।"
इस गाथा और उसकी टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"केवलज्ञान परपदार्थों को भी जानता है। इसकारण परोक्ष हो जावेगा - ऐसी शंका कोई करता है तो उसका समाधान यह है कि केवलज्ञान मूर्तिक पदार्थों में प्रवेश किये बिना ही उन्हें प्रत्यक्ष जानता है, उनके आधीन नहीं है; अतः स्वाधीन होने से परोक्ष नहीं होगा।
गाथा १६७ : शुद्धोपयोगाधिकार
ર૬૩ तथा कोई कहता है कि जब केवलज्ञान परपदार्थों में प्रवेश ही नहीं करता तो उन्हें प्रत्यक्ष कैसे जानेगा?
उपर्युक्त शंका नहीं करना चाहिए; क्योंकि केवलज्ञान अनन्त सामर्थ्य सम्पन्न होने से तीन लोक के मूर्त-अमूर्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष जानता है।
यहाँ फिर कोई कहता है कि केवली परमाणु में प्रवेश किए बिना उसकी अनन्त शक्तियों को कैसे जान लेंगे?
इसका समाधान यह है कि केवली कहते ही उसे हैं; जो पर में प्रवेश किए बिना, अपने में रहकर समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं।
यहाँ आत्मा का स्वपरप्रकाशक स्वभाव सिद्ध करते हुए बताते हैं कि परपदार्थ के कारण आत्मा का स्वपरप्रकाशक स्वभाव नहीं है; प्रत्युत यह स्वभाव तो उसकी उपादानगत योग्यता से स्वयमेव प्रगट हुआ है। वह स्वभाव (केवलज्ञान) समस्त परपदार्थों को उनमें तन्मय हुए बिना एवं इन्द्रियों के बिना प्रत्यक्ष जानता है।
उनके ज्ञान की निम्नांकित तीन विशेषताएँ हैं -
(१) भगवान का ज्ञान क्रमरहित है अर्थात् पहले दर्शन और बाद में ज्ञान - ऐसा क्रम भगवान के ज्ञान में नहीं है। तथा पहले परपदार्थों को सामान्य रूप से जानते हैं और बाद में विशेषरूप से जानते हैं - ऐसा भी क्रम उनके ज्ञान में नहीं पड़ता।
(२) इन्द्रियातीत होने से उनका ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है; क्योंकि इन्द्रिययुक्त ज्ञान समस्त पदार्थों को एकसाथ नहीं जान सकता।
(३) उस ज्ञान में कोई व्यवधान नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण प्रत्यक्ष केवलज्ञान के लिए कोई भी पदार्थ अगम्य नहीं है।”
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि इन्द्रिय, क्रम और व्यवधान से रहित केवलज्ञान; मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन ह्र
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४०५-१४०६ २. वही, पृष्ठ १४०७