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नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत) अत्यन्त अविचल और अन्तर्मग्न नित गंभीर है। शुद्धि का आवास महिमावंत जो अति धीर है। व्यवहार के विस्तार से है पार जो परमातमा।
उस सहज स्वातमराम को नितदेखता यह आतमा ।।२८२| जो एक है, विशुद्ध है, निज अन्तशुद्धि का आवास होने से महिमावंत है, अत्यन्त धीर है और अपने आत्मा में अत्यन्त अविचल होने से पूर्णतः अन्तर्मग्न हैं; स्वभाव से महान उस आत्मा में व्यवहार का प्रपंच (विस्तार) है ही नहीं।
सोनगढ से प्रकाशित नियमसार में इस कलश के संदर्भ में जो टिप्पणी लिखी गई है; वह इसप्रकार है ह्र _ “यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी ऐसा समझना कि - जिसमें स्व की ही अपेक्षा हो वह निश्चयकथन है और जिसमें पर की अपेक्षा आये वह व्यवहार कथन है; इसलिये केवली भगवान लोकालोक को - पर को जानते-देखते हैं ऐसा कहना व्यवहार कथन है और केवली भगवान स्वात्मा को जानते-देखते हैं ऐसा कहना निश्चय कथन है।
यहाँ व्यवहार कथन का वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव लोकालोक को जानता-देखता ही नहीं है; उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते ही नहीं है।
छद्मस्थ जीव के साथ तुलना की अपेक्षा से तो केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते हैं ह्र यह बराबर सत्य है; यथार्थ है, क्योंकि वे त्रिकाल सम्बन्धी सर्व द्रव्य गुणपर्यायों को यथास्थित बराबर परिपूर्णरूप से वास्तव में जानते-देखते हैं। केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते हैं' ह्र ऐसा कहते हुए पर की अपेक्षा आती है ह्र इतना ही सूचित करने के लिये तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्व को तद्प होकर निजसुख संवेदन सहित जानते-देखते हैं; उसीप्रकार लोकालोक को (पर को) तद्प होकर परसुखदुःखादि के संवेदन सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु पर से बिलकुल भिन्न रहकर, पर के
गाथा १६६ : शुद्धोपयोगाधिकार
२११ सुखदुःखादि का संवेदन किये बिना जानते-देखते हैं ह्र इतना ही सूचित करने के लिये उसे व्यवहार कहा है।"
इस कलश का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं त
“यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी कथन ऐसा समझना कि जिसमें स्व की ही अपेक्षा हो, वह निश्चय कथन है और जिसमें पर की अपेक्षा आये, वह व्यवहार कथन है; इसलिए केवली भगवान लोकालोक को, पर को जानते-देखते हैं - ऐसा कहना व्यवहार कथन है और केवली भगवान स्वात्मा को जानते-देखते हैं - ऐसा कहना निश्चय कथन है।
यहाँ व्यवहार कथन का वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव लोकालोक को जानता-देखता ही नहीं है; उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते ही नहीं हैं।
छद्मस्थ जीव के साथ तुलना की अपेक्षा से तो केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते हैं, वह बराबर सत्य है - यथार्थ है; क्योंकि वे त्रिकाल सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को यथास्थिति बराबर परिपूर्णरूप से वास्तव में जानते-देखते हैं। केवली भगवान लोकालोक को जानते-देखते हैं ऐसा कहते हुए पर की अपेक्षा आती है तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्व को तद्प होकर सुखदुःखादि के संवेदन सहित नहीं जानते-देखते; परन्तु पर से बिल्कुल भिन्न रहकर, पर के सुख-दुःखादि संवेदन किये बिना जानते-देखते हैं। इतना ही सूचित करने के लिए उसे व्यवहार कहा है।
ज्ञान पर को जानता है; अतः व्यवहार कहा है, इससे कोई ऐसा माने कि ज्ञान पर को जानता ही नहीं तो ऐसा नहीं है।"
इसप्रकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत भगवान आत्मा में व्यवहार का प्रपंच नहीं है, व्यवहारनय के द्वारा निरूपित विस्तार नहीं है, गौण है।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४०३-१४०४
२. वही, पृष्ठ १४०४