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अजीव अधिकार
तथाहिह्न
(मालिनी) अथ सति परमाणोरेकवर्णादिभास्वन्
निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः। इति निजहृदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम्
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः ।।४।। अण्णणिरावेक्खोजो परिणामोसोसहावपज्जाओ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ।।२८।। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि आठ स्पर्शों में से कौन से दो स्पर्श लेना हैं ?
इसके उत्तर में कहते हैं कि शीत और उष्ण तथा रूक्ष और स्निग्ध ह्न इन चार स्पर्शों के एकसाथ रह सकने योग्य चार जोड़े बनेंगे।
वे चार जोड़े इसप्रकार हैं ह्न १. शीत-स्निग्ध, २. शीत-रूक्ष, ३. उष्ण-स्निग्ध और ४. उष्ण-रूक्ष । परमाणु में उक्त चार जोड़ों में से कोई एक जोड़ा रहेगा ।।१३।।
इसके उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं अपनी ओर से भी लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) वरणादि परमाणु में रहें न कारज सिद्धि।
माने भविशुद्धात्म की करेभावना नित्य ||४१|| यदि परमाणु उक्त एक वर्णादिरूप प्रकाशित होते हुए निजगुण समूह में है तो उसमें मेरी कोई कार्यसिद्धि नहीं होती। इसप्रकार अपने हृदय में मानकर परमसुख का अर्थी भव्यसमूह एकमात्र शुद्ध आत्मा की भावना करें।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि परमाणु की स्थिति जो कुछ भी हो; पर उससे मुझे क्या प्रयोजन है; क्योंकि मेरे आत्मकल्याणरूप कार्य की सिद्धि से उसका कोई संबंध नहीं है।
मेरे कार्य की सिद्धि तो एकमात्र शुद्धात्मा की आराधना से होगी। अत: मैं तो निज शुद्धात्मा की भावना भाता हूँ, उसी को ध्याता हूँ।।४१||
विगत गाथा में स्वभावपुद्गल के स्वरूप का व्याख्यान करने के उपरान्त अब इस गाथा में पुद्गलपर्याय के स्वरूप का व्याख्यान करते हैं।