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अजीव अधिकार
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्गेज्झं । अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ।। २६॥
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आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नैवेन्द्रियैर्ग्राह्यम् ।
अविभागि यद्द्द्रव्यं परमाणुं तद् विजानीहि ।। २६ ।।
परमाणुविशेषोक्तिरियम् । यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्त स्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्तम्
इन छह प्रकार के स्कंधों और चार प्रकार के परमाणुओं से मुझे क्या लेना-देना है ? मैं तो अक्षय शुद्ध आत्मा को बार-बार भाता ध्याता हूँ । आचार्य कुन्दकुन्ददेव परम आध्यात्मिक संत हैं और यह नियमसार परमागम उन्होंने स्वयं की भावना की पुष्टि के लिए लिखा है; अत: यह ग्रंथ भी परमाध्यात्मिक ग्रन्थराज है। इसकारण इस अजीवाधिकार में पुद्गल संबंधी उक्त विवेचन में उनका मन विशेष नहीं रमा ।
अतः उन्होंने मूल गाथाओं में ही कह दिया कि इसका विस्तार अन्य ग्रन्थों से जान लेना । इस ग्रंथ के टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इस मामले में उनसे भी चार कदम आगे चलते दिखाई देते हैं ।
इसप्रकार के विवेचन करने के उपरान्त वे जो छन्द लिखते हैं; उनमें बार-बार यह स्पष्ट कर देते हैं कि हमें इससे क्या प्रयोजन है, हम तो अपने शुद्धात्मा में जाते हैं।
इसप्रकार की भावना व्यक्त करनेवाले अनेक छन्दों में एक छन्द यह भी है ।। ३९ ।। विगत गाथा में आरंभ की गई परमाणु के प्रकारों की चर्चा के उपरान्त इस गाथा में परमाणु के स्वरूप पर विचार करते हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
(हरिगीत )
इन्द्रियों से ना ग्रहे अविभागि जो परमाणु है ।
वह स्वयं ही है आदि एवं स्वयं ही मध्यान्त है ||२६||
आदि, मध्य और अन्त से रहित, इन्द्रियों से अग्राह्य और जिसका विभाग संभव नहीं है ह्न ऐसा अविभागी पुद्गलपरमाणु द्रव्य है ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह परमाणु का विशेष कथन है । जिसप्रकार सहज परमपारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करनेवाले सहज शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा नित्यनिगोद और अनित्यनिगोद (इतरनिगोद) से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जीवों का निजस्वरूप से