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तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये ह्न
पुढवी जलं च छाया चउरिंदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्मातीदा एवं छब्भेया पोग्गला होंति ।।७।। ' उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्न
( अनुष्टुभ् )
स्थूलस्थूलास्ततः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्मास्ततः परे । सूक्ष्मस्थूलास्तत: सूक्ष्माः सूक्ष्मसूक्ष्मास्ततः परे ।। ८ ।। २ तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र
(वसंततिलका)
अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।। ९ ।। *
तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं की टीका के उपरान्त टीकाकार अन्य शास्त्रों के तीन उद्धरण प्रस्तुत करते हैं । २१-२४।।
सबसे पहले 'तथा चोक्तं पचास्तिकायसमये ह्न तथा ऐसा ही पंचास्तिकाय नामक शास्त्र में कहा है' ह्र लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( दोहा )
तथा चतु इन्द्रिय के योग्य |
पृथवीजल छाया ये छह पुद्गल वंध हैं कर्मयोग्य अनयोग्य ॥७॥
नियमसार
पृथवी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल, कर्मयोग्य पुद्गल और कर्मों के अयोग्य पुद्गल ह्न ये छह प्रकार के स्कंध हैं ।।७।।
इसके बाद ‘उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्न मार्गप्रकाश ग्रंथ में भी कहा है' कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( सोरठा )
थूलथूल अर थूल स्थूल सूक्ष्म पहिचानिये | सूक्षमथूल सूक्ष्म सूक्षम सूक्षम जानिये ॥ ८ ॥
१. देखो, श्री परमश्रुतप्रभावकमण्डल द्वारा प्रकाशित पंचास्तिकाय, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १३०
२. मार्गप्रकाश, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।
३. समयसार : आत्मख्याति, छन्द ४४