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( मालिनी )
असति सति विभावे तस्य चिंतास्ति नो नः
सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम् । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं
न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात् ।। ३४ ।। भविनि भवगुणाः स्युः सिद्धजीवेऽपि नित्यं
निजपरमगुणाः स्युः सिद्धिसिद्धाः समस्ताः । व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि
र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम् ।।३५।।
चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा)
कर्मजनित सुख त्यागकर निज में रमें सदीव | परम अतीन्द्रिय सुख लहें वे निष्कर्मी जीव ||३३||
जो सम्पूर्ण कर्मजनित सांसारिक सुख के समूह का अभाव करता है, उसे छोड़ता है; वह भव्यजीव निष्कर्म, अतीन्द्रिय सुखरूपी अमृत सरोवर में रहते हुए अतिशय चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निजभाव को प्राप्त होता है, प्राप्त करता है ।
नियमसार
इस छन्द में यही कहा गया है कि जो कर्मोदय से प्राप्त विषयभोगों को हेय नहीं मानता, उन्हें दुखरूप नहीं जानता; वह अज्ञानी पुरुष या तो उन्हें भोगने में मस्त रहता है या फिर भोगसामग्री को जोड़ने में लगा रहता है; परन्तु जो ज्ञानी पुरुष कर्मोदय से प्राप्त होनेवाले विषयभोगों को हेय जानकर छोड़ता है; वह निष्कर्म अतीन्द्रिय सच्चे सुख को प्राप्त करता है ।। ३३ ।।
पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( दोहा )
हममें कोई विभाव न हमें न चिन्ता कोई ।
शुद्धातम में मगन हम अन्योपाय न होई ||३४||
हमारे आत्मस्वभाव में विभावभावों का अभाव होने से हमें उनकी कोई चिन्ता नहीं है । हम तो हमारे हृदय कमल में स्थित, सर्व कर्मों से रहित, शुद्धात्मा का निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि अन्य किसी भी प्रकार से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, नहीं होती ।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि जब हम परमशुद्धनिश्चयनय से पर और पर्याय से भिन्न निजस्वभाव को देखते हैं तो उसमें विभाव दिखाई ही नहीं देते; अतः