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________________ जीव अधिकार ( शार्दूलविक्रीडित ) नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु । तच्छक्ति-र्जिननाथ- पादकमल - द्वन्द्वार्चनायामियं भक्तिस्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि ।। २९ ।। हे जिनेन्द्र ! भाग्यवश मैं चाहे स्वर्गों में रहूँ, मनुष्य लोक में रहूँ, विद्याधारों के स्थान में रहूँ, ज्योतिषी देवों के लोक में रहूँ, नागेन्द्रों के नगर में र नरकों में रहूँ, जिनेन्द्र भगवान के भवनों अर्थात् मंदिरों में रहूँ या चाहे जहाँ रहूँ; परन्तु मुझे कर्म का उद्भव न हो और आपके चरणकमलों की भक्ति बारंबार हो, निरन्तर बनी रहे । उक्त कलश में जो भावना व्यक्त की गई है; यद्यपि उसका भाव यह कदापि नहीं है कि मुनिराज श्री को चार गतियों में घूमना है; तथापि वे यह तो जानते ही हैं कि जबतक मुक्ति प्राप्त नहीं हुई; तबतक इन चार गतियों में ही कहीं न कहीं तो रहना ही है । इन गतियों में अच्छे-बुरे का भेद करने में उन्हें कोई रस नहीं है; कहीं भी रहें, पर वे कर्मों का ऐसा उदय नहीं चाहते कि जिसके कारण जिनेन्द्रभक्ति का अवसर न रहे। ५१ तात्पर्य यह है कि उन्हें अच्छे-बुरे संयोगों की परवाह नहीं है; पर यह विकल्प अवश्य है कि जबतक मैं अष्टकर्मों से, मोह-राग-द्वेष भावों से पूर्णत: मुक्त न हो जाऊँ; तबतक जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के अवसर बने रहें ।। २८ ।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला ) अरे देखकर नराधिपों का वैभव जड़मति । क्यों पाते हो क्लेश पुण्य से यह मिलता है ।। पुण्य प्राप्त होता है जिनवर की पूजन से । यदि हृदय में भक्ति स्वयं सब पा जाओगे ||२९|| नराधपतियों के अनेकप्रकार के वैभव को देखकर व सुनकर हे स्थूलबुद्धि ! तू व्यर्थ ही क्लेश क्यों पाता है ? ये वैभव तो पुण्य से प्राप्त होते हैं और वह पुण्य जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों की पूजा से प्राप्त होता है। यदि तेरे हृदय में जिनेन्द्रभगवान के चरणकमलों की भक्ति है तो अनेकप्रकार के वे भोग तुझे स्वयं ही प्राप्त होंगे। चक्रवर्तियों का वैभव देखकर संक्लेश परिणाम करनेवाले लोगों को टीकाकार मुनिराज जड़मति कह रहे हैं। तात्पर्य यह है कि सम्पन्न लोगों की संपन्नता देखकर ललचानेवाले लोग जड़मति हैं, स्थूलबुद्धि हैं ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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