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________________ ४७४ नियमसार ईसाभावेण पुणो केई णिदंति सुन्दरं मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।। १८६ ।। ईर्षाभावेन पुन: केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम्। तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्तिं मा कुरुध्वं जिनमार्गे ।। १८६ ।। इह हि भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । केचन मंदबुद्धयः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकलक्षणनिर्विकल्पकनिजकारणपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपशुद्धरत्नत्रयप्रतिपक्षमिथ्यात्वकर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्गं सर्वज्ञवीतरागस्य मार्गं पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतुदृष्टान्तसमन्वितं कुतर्कवचनं श्रुत्वा इस छन्द में टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कह रहे हैं कि मुक्ति का कारण होने से यह रत्नत्रयरूप धर्म और नियमसार नामक शास्त्र तथा उसका मुक्तिरूप फल सभी उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में जयवंत रहे । सूत्रकार अर्थात् गाथायें लिखनेवाले आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने परमागम की भक्ति से यह शास्त्र लिखा है। उनका इसमें कोई अन्य प्रयोजन नहीं है, स्वार्थ नहीं है । यह शास्त्र सभी भव्यजीवों के लिए मुक्ति का मार्ग दिखानेवाला है । अतः सभी भव्यजीवों को इसका सच्चे दिल से पठन-पाठन करना चाहिए ||३०५|| उपसंहार की विगत गाथा के उपरान्त लिखी जानेवाली इस गाथा में यह अनुरोध किया जा रहा है कि निन्दकों की बात पर ध्यान देकर इसके अध्ययन से विरक्त मत हो जाना । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की । छोड़ो न भक्ति वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की ।। १८६ ।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दरमार्ग की निन्दा करता है तो उसके वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति अभक्ति नहीं करना । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ भव्यजीवों को शिक्षा दी है । यदि कोई मंदबुद्धि त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द लक्षणवाले, निर्विकल्प, निजकारणपरमात्मतत्त्व के सम्यक् ज्ञान- श्रद्धान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रय से प्रतिपक्षी मिथ्यात्व कर्मोदय की सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र परायण वर्तते हुए ईर्ष्याभाव से/मत्सरयुक्त परिणाम से पापक्रिया से निवृत्ति जिसका लक्षण है ह्र ऐसे भेदोपचार रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागदेव के इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करते हैं तो उन स्वरूप विकल लोगों के कुत्सित हेतु और खोटे उदाहरणों से
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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