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जीव अधिकार
इदानीं व्यञ्जनपर्याय उच्यते । व्यज्यते प्रकटीक्रियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः । कुतः? लोचनगोचरत्वात् पटादिवत् । अथवा सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्, दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात्। ___ व्यंजनपर्यायश्च पर्यायिनमात्मानमन्तरेण पर्यायस्वभावात्, शुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा व्यवहारेण नरो जातः, तस्य नराकारो नरपर्यायः, केवलेनाशुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा नारको जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्याय:, किंचिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यकपर्याय:, केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो देवपर्यायश्चेति । अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे दृष्टव्य इति।।
इसप्रकार संक्षेप में शुद्धपर्याय के भेद कहे। अब व्यंजनपर्याय की चर्चा की जाती है। जिससे प्रगट हो, व्यक्त हो; वह व्यंजनपर्याय है। किसप्रकार? वस्त्रादि के समान चक्षुगोचर होने से अथवा सादि-सांत, मूर्त, विजातीयस्वभाववाली होने से; दिखकर नष्ट होनेवाली होने से प्रगट होती है।
पर्यायी आत्मा के ज्ञान बिना आत्मा, पर्यायस्वभावी होने से व्यवहार नय सेशभाशभरूप मिश्र परिणामों के कारण मनुष्य होता है; उसका वह मनुष्याकार ही मनुष्यपर्याय है; केवल अशुभकर्म से आत्मा नारकी होता है, उसका वह नारकाकार ही नारकपर्याय है; किंचित् शुभ मिश्रित माया परिणाम से आत्मा तिर्यंचकाय में जन्मता है, उसका वह तिर्यंचाकार ही तिर्यंचपर्याय है और केवल शुभकर्म से आत्मा देव होता है, उसका वह देवाकार देवपर्याय है ह यह व्यंजनपर्याय है। इस व्यंजनपर्याय का विस्तार अन्य आगम से देख लेना चाहिए।"
मूल गाथा की ऊपर की पंक्ति में विभावपर्यायरूप व्यंजनपर्यायों की बात की गई है और नीचे की पंक्ति में कर्मोपाधि से रहित स्वभाव पर्यायों की चर्चा की गई है; किन्तु टीकाकार मुनिराज टीका में पहले कारणशुद्धपर्याय, कार्यशुद्धपर्याय और षट्गुणीहानिवृद्धिरूप अर्थपर्यायों की अर्थात् स्वभावपर्यायों की चर्चा करते हैं।
यह वही महत्त्वपूर्ण गाथा है कि जिसकी दूसरी पंक्ति के 'कम्मोपाधि विवज्जिय' पद में से अन्यत्र अनुपलब्ध कारणशुद्धपर्याय निकालकर उसकी चर्चा विस्तार से की गई है। टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव का न केवल यह अनुपम अनुसंधान है, अपितु वे इस पर इतने मुग्ध हैं कि उन्होंने गाथाकार कुंदकुंददेव के प्रतिपादन क्रम को भी बदल दिया है।
कारणशुद्धपर्याय, कार्यशुद्धपर्याय और अर्थपर्याय की चर्चा करने के उपरान्त जब टीकाकार ने व्यजनपर्यायों की चर्चा आरभ की तो थोड़ी-बहुत करके कह दिया कि इसका विस्तार अन्य ग्रंथों से जान लेना। उनका यह उपक्रम उनकी तीव्रतम आध्यात्मिक रुचि को प्रदर्शित करता है ।।१५।।