________________
शुद्धोपयोग अधिकार
४३३
स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव । इत्थं स्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंगमात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे संज्ञालक्षणप्रकाशतया निरवेशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति।
(मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या दृष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः । एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण:
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निविकल्पे महिम्नि ।।२८१।। होने के कारण, निश्चय से, त्रिलोक-त्रिकालवर्ती स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुण-पर्यायरूप विषयों संबंधी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पों से अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूप संचेतन लक्षण प्रकाश द्वारा सर्वथा अन्तर्मुख होने के कारण, निरन्तर अखण्ड, अद्वैत, चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है।"
१६४ व १६५वीं गाथा में ज्ञान, दर्शन और आत्मा को समानरूप से परप्रकाशक एवं स्वप्रकाशक बताया गया है। इससे ऐसा लगता है कि जैसे तीनों का एक ही काम है, पर ऐसा नहीं है क्योंकि ज्ञान स्व और पर को जाननेरूप प्रकाशित करता है, दर्शन देखनेरूप प्रकाशित करता है और आत्मा देखने-जाननेरूप प्रकाशित करता है।
इसीप्रकार दर्शन सामान्यग्राही है, ज्ञान विशेषग्राही है और आत्मा सामान्य-विशेषात्मक पदार्थग्राही है।
यहाँ यह बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि इन गाथाओं में निश्चय-व्यवहारनय की संधिपूर्वक स्वपरप्रकाशी ज्ञान और आत्मा के माध्यम से दर्शन को स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया गया है।
तात्पर्य यह है कि ज्ञान और आत्मा के स्वपरप्रकाशनपने को आधार बनाकर दर्शन को स्वपरप्रकाशी सिद्ध किया गया है।।१६५|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(हरिगीत) परमार्थ से यह निजप्रकाशक ज्ञान ही है आतमा । बाह्य आलम्बन रहित जो दष्टि उसमय आतमा ।। स्वरस के विस्तार से परिपूर्ण पुण्य-पुराण यह । निर्विकल्पक महिम एकाकार नित निज में रहे ||२८१||