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शुद्धोपयोग अधिकार
४२५ णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६२।। ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम्। न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात् ।।१६२।।
र्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्तिरियम् । केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं भिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत् साविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतन: पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपि न केवलमात्मटीकाकार द्वारा लिखे गये छन्द में ह्न सभी में इसी बात को तर्क और युक्ति से, पुष्ट प्रमाणों से यही सिद्ध किया गया है कि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, दर्शन स्वपरप्रकाशक है और आत्मा भी स्वपरप्रकाशक है।
इस गाथा में विगत गाथा में प्रतिपादित बात को ही आगे बढ़ा रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) पर का प्रकाशक ज्ञान तो दूग भिन्न होगा ज्ञान से।
पर को न देखे दर्श हू ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६२।। यदि ज्ञान परप्रकाशक ही हो तो ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा; क्योंकि दर्शन परप्रकाशक नहीं है, तेरी मान्यता संबंधी ऐसा वर्णन पूर्व सूत्र में किया गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह पूर्वसूत्र अर्थात् १६१वीं गाथा में कहे गये पूर्वपक्ष के सिद्धान्त संबंधी कथन है। यदि ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो इस परप्रकाशन प्रधान ज्ञान से दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; क्योंकि सह्याचल और विन्ध्याचल के समान अथवा गंगा और श्रीपर्वत के समान परप्रकाशक ज्ञान और स्वप्रकाशक दर्शन का संबंध किसप्रकार होगा?
यदि कोई ऐसा कहे तो कहते हैं कि जो आत्मनिष्ठ (स्वप्रकाशक) है, वह तो दर्शन ही है। उस दर्शन और ज्ञान को निराधार होने से अर्थात् आत्मरूपी आधार न होने से शून्यता की आपत्ति आ जावेगी अथवा जहाँ-जहाँ ज्ञान पहुँचेगा; अर्थात् जिस-जिस द्रव्य को ज्ञान प्राप्त करेगा, ज्ञान जानेगा; वे-वे सभी द्रव्य चेतनता को प्राप्त होंगे। इसकारण तीन लोक में कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा ह यह महान दोष आयेगा।