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________________ ४२३ शुद्धोपयोग अधिकार पक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति । सदैव सर्वं पश्यति हि चक्षुः, स्वस्याभ्यन्तरस्थितांकनीनिकांन पश्यत्येव । अतःस्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव । ततः स्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्न (स्रग्धरा) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निक्षूनकर्मा । तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।।७७।। इसीप्रकार दर्शनपक्ष से भी दर्शन केवल आभ्यन्तर प्रतिपत्ति काही कारण नहीं है, वह मात्र स्व को ही नहीं देखता; अपितु सबको देखता है; क्योंकि चक्षु सदा सबको देखती है, अपने भीतर स्थित कनीनिका' को नहीं देखती। इससे यह निश्चित होता है कि ज्ञान और दर्शन ह्न दोनों को ही स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है। इसप्रकार ज्ञानदर्शन लक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है।" ___ इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त दृढ़तापूर्वक यह कहा गया है कि दर्शन स्वप्रकाशक है और ज्ञान परप्रकाशक है ह इसप्रकार दोनों को मिलाकर आत्मा स्वपरप्रकाशक है ह्न यह बात सही नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है, दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है और आत्मा भी स्वपरप्रकाशक है। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (मनहरण कवित्त) जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब। अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ।। भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब | द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ।। मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं। सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक-पृथक् सब जानते हए भी ये। सदा मुक्त रहें अरहंत परमातमा ||७७|| १. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, छन्द ४ २. आँख की पुतली
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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