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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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( हरिगीत ) संसारकारक भेद जीवों के अनेक प्रकार हैं। भव जन्मदाता कर्म भी जग में अनेक प्रकार हैं। लब्धियाँ भी हैं विविध इस विमल जिनमारगविषै।
स्वपरमत के साथ में न विवाद करना योग्य है।।२६७|| जीवों के संसार के कारणभूत अनेक प्रकार के भेद हैं, जन्मोत्पादक कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और निर्मल जैनमार्ग में लब्धियाँ भी अनेक प्रकार की प्रसिद्ध हैं। इसलिए स्वसमय और परसमय के साथ विवाद करना कर्त्तव्य नहीं है।
विकल्प शब्द का अर्थ भेद भी होता है; इसकारण गाथा के अनुसार यहाँ विकल्प का अर्थ भेद मानकर ही अर्थ किया गया है। तथापि मन में उठनेवाले अनेक प्रकार के भावों को भी विकल्प कहते हैं। ___ यदि इसके अनुसार अर्थ किया जाये तो ऐसा भी कर सकते हैं कि जीवों के संसारवर्धक अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं, मान्यताएँ होती हैं। इसीप्रकार कर्म का अर्थ कार्य भी होता है। तात्पर्य यह है कि लोगों के कार्य भी अनेक प्रकार के हैं। पर्यायगत योग्यता को लब्धि कहते हैं। 'लब्धियाँ अनेक प्रकार की हैं ह्न का अर्थ यह भी हो सकता है कि जीवों की पर्यायगत योग्यतायें भी अनेक प्रकार की हैं, विभिन्न प्रकार की हैं।
इसप्रकार इस छन्द का एक सहज अर्थ यह भी किया जा सकता है कि जीवों के मन में अनेक प्रकार की विकल्प तरंगे उठती हैं, उनके अनेक प्रकार के कार्य देखे जाते हैं और उनकी पर्यायगत योग्यताएँ भी अलग-अलग होती हैं। इसकारण सब का एकमत हो पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अत: आत्मार्थियों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे उक्त संदर्भ में किसी से भी वाद-विवाद में न उलझें।
ध्यान रहे, समझना-समझाना अलग बात है और वाद-विवाद करना अलग । समझनेसमझाने का भाव ज्ञानीजनों को भी आ सकता है, आता भी है, वे समझाते भी हैं; पर वे किसी से वाद-विवाद में नहीं उलझते।
वाद-विवाद में जीत-हार की भावना रहती है; जबकि समझने में जिज्ञासा और समझाने में करुणाभाव रहता है। यही कारण है कि साधर्मी भाई-बहिनों में तत्त्वचर्चा तो होती है, पर वाद-विवाद नहीं।
यहाँ वाद-विवाद का निषेध है; चर्चा-वार्ता का नहीं, शंका-समाधान का नहीं, पठनपाठन का भी नहीं; क्योंकि ये तो स्वाध्याय तप के भेद हैं।।२६७||
विगत गाथा में किसी के भी साथ वाद-विवाद करने का निषेध किया गया है और अब