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(अनुष्टुभ् )
सहजज्ञानसाम्राज्यसर्वस्वं शुद्धचिन्मयम् । ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम् ।। २२ ।। तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो । केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।। १३ ।।
नियमसार
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः । केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणित: ।। १३ ।। दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत् । यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथ: दर्शनोपयोगश्च तथा । स्वभावदर्शनोपयोगो विभावदर्शनोपयोगश्च । स्वभावोऽपि द्विविधः कारणस्वभावः
उक्त पाँच छन्दों में से अन्तिम पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( सोरठा )
सहजज्ञान सर्वस्व शुद्ध चिदातम आतमा |
उसे जान अविलम्ब निर्विकल्प मैं हो रहा ||२२||
सहजज्ञानरूपी साम्राज्य जिसका सर्वस्व है ह्न ऐसे शुद्ध चैतन्य अपने आत्मा को जानकर अब मैं निर्विकल्प होता हूँ ।
इस छन्द में तो मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव आत्मा को जानकर, उसी में जमकर, मकर निर्विकल्प होने की बात कर रहे हैं ||२२||
विगत गाथाओं में ज्ञानोपयोग की चर्चा की है; अब इस गाथा में दर्शनोपयोग की चर्चा आरंभ करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
( हरिगीत )
स्वभाव और विभाव दर्शन भी कहा दो रूप में।
पर अतीन्द्रिय असहाय केवल स्वभावदर्शन ही कहा ||१३||
उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी स्वभावदर्शनोपयोग और विभाव- दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। जो केवलदर्शन इन्द्रियरहित और असहाय है; वह स्वभावदर्शनोपयोग है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "यह दर्शनोपयोग के स्वरूप का व्याख्यान है । जिसप्रकार ज्ञानोपयोग अनेकप्रकार के भेदोंवाला है; उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी अनेकप्रकार के भेदोंवाला है ।
स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग के भेद से दर्शनोपयोग दो प्रकार का है ।