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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च । आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं । । १५३ ।।
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च ।
आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ।। १५३ ।।
सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम् । पाक्षिकादिप्रतिक्रमणक्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतं द्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्याननियमालोचनाश्च । पौगलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्यं त्वं जानीहि इति ।
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विगत गाथा में वीतरागी चारित्र में स्थित मुनिराजों की अनुशंसा करने के उपरान्त अ इस गाथा में वचनमय प्रतिक्रमणादि का निराकरण करते हैं।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
वचनमय प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान अर आलोचना ।
बाचक नियम अर ये सभी स्वाध्याय के ही रूप हैं ।। १५३ ।।
वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना ह्न ये सब प्रशस्त अध्यात्मरूप शुभभावरूप स्वाध्याय जानो ।
का कारण,
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न "यह समस्त वचनसंबंधी व्यापार का निराकरण है। पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया निर्यापक आचार्य के मुख से निकला हुआ, समस्त पापों के क्षय का कारण सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वचनवर्गणा योग्य पुद्गल द्रव्यात्मक होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है। प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी पुद्गलद्रव्यात्मक होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है । वे सब पौद्गलिक वचनमय होने से स्वाध्याय हैं ह्न ऐसा हे शिष्य ! तू जान । ”
इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सर्वज्ञदेव की वाणी के अनुसार गणधरदेव द्वारा ग्रथित और भावलिंगी संतों द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग श्रुत में कहे गये वचनरूप व्यवहार प्रतिक्रमणादि हेय हैं, बंध के कारण हैं; मुक्ति के कारण नहीं । । १५३ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है