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तथा हि ह्र
नियमसार
( मंदाक्रांता ) योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्तः संसारोत्थ- प्रबल - सुखदुःखाटवी - दूरवर्ती । तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः ।। २५८ ।। अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा । जप्पे जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा । । १५० ।।
उक्त छन्दों का भाव एकदम स्पष्ट और सहज सरल है; अतः उक्त संदर्भ में कुछ कहना अभीष्ट नहीं है ।। ६९-७०।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
( रोला )
योगी सदा परम आवश्यक कर्म युक्त |
भव सुख दुख अटवी से सदा दूर रहता है । इसीलिए वह आत्मनिष्ठ अन्तर आतम है।
स्वात्मतत्त्व से भ्रष्ट आतमा बहिरातम है || २५८||
योगी सदा सहज परमावश्यक कर्म से युक्त रहता हुआ संसारजनित सुख - दुखरूपी अटवी (भयंकर जंगल) से दूरवर्ती होता है। इसलिए वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अन्तरात्मा है । जो स्वात्मा से भ्रष्ट है, वह बाह्य पदार्थों में अपनापन करनेवाला बहिरात्मा है।
इसप्रकार इस छन्द में कहा गया है कि आत्मनिष्ठ योगी ही सच्चे योगी हैं, स्ववश सन्त हैं, निश्चय आवश्यक के धारी हैं। जो जीव स्वात्मा से भ्रष्ट हैं, वे बहिरात्मा हैं। तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा में अपनापन स्थापित करके, उसे ही निजरूप जानकर, जो योगी स्वयं ही समा जाता है, वही सच्चा योगी है । जगतप्रपंचों में उलझे लोग स्ववश योगी नहीं हो सकते ।। २५८ ॥
विगत गाथा में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का स्वरूप कहा है। अब इस गाथा में उसके ही स्वरूप को विशेष स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
जो रहे अन्तरबाह्य जल्पों में वही बहिरातमा ।
पर न रहे जो जल्प में है वही अन्तर आतमा ||१५० ||