SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमभक्ति अधिकार ३५३ सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८ ।। सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः। स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथंभवेद्योगः ।।१३८।। अत्रापि पूर्वसूत्रवन्निश्चययोगभक्तिस्वरूपमुक्तम् । अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिजचिद्विलासलक्षणनिर्विकल्पपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्र्मुखनिजकारणसमयसारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीव: सदा युनक्त्यैव, तस्य खलु निश्चययोगभक्तिर्नान्येषाम इति । विगत गाथा के समान इस गाथा में भी निश्चय योगभक्ति का स्वरूप कहते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) जो साधु आतम लगावे सब विकल्पों के नाश में। वह योगभक्ति युक्त हैं यह अन्य को होवे नहीं।।१३८|| जो साधु अर्थात् आसन्नभव्यजीव सभी विकल्पों के अभाव में अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही लगाता है अथवा अपने आत्मा में आत्मा को जोड़कर सभी विकल्पों का अभाव करता है; वह आसन्नभव्य जीव योगभक्तिवाला है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ भी विगत गाथा के समान निश्चय योगभक्ति का स्वरूप कहा है। अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयात्मक निज चिविलासलक्षण निर्विकल्प परमसमाधि द्वारा, सम्पूर्ण मोहराग-द्वेषादि अनेक विकल्पों का अभाव होने पर, परम समरसीभाव के साथ, सम्पूर्णत: अंतर्मुख निज कारण समयसारस्वरूप को जो अति-आसन्नभव्यजीव सदा जोड़ता ही है; उसे ही वस्तुत: निश्चय योगभक्ति है; अन्यों को नहीं।" १३७ व १३८वीं गाथा में साहू पद का प्रयोग है; उसका अर्थ टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव आसन्नभव्यजीव करते हैं। दूसरी बात यह है कि ये दोनों गाथाएँ लगभग एक समान ही हैं। अन्तर मात्र इतना ही है कि १३७वीं गाथा में समागत रागादी परिहारे पद के स्थान पर १३८वीं गाथा में सव्ववियप्पाभावे पद दे दिया गया है। तात्पर्य यह है कि १३७वीं गाथा में आत्मा के आश्रय से रागादि का परिहार करनेवाले को योगभक्तिवाला कहा है और १३८वीं गाथा में सभी प्रकार के विकल्पों के अभाववाले को योगभक्तिवाला कहा है।।१३८||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy