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परमभक्ति अधिकार
( गाथा १३४ से गाथा १४० तक )
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते ।
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो ।
तस्स दुणिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं । । १३४ ।। सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः । तस्य तु निर्वृत्तिभक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् । । १३४ । ।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतीव्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थः । एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च; एते सर्वे
विगत नौ अधिकारों में क्रमशः जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त और परमसमाधि की चर्चा हुई। अब इस दसवें अधिकार में परमभक्ति की चर्चा आरंभ करते हैं।
इस परमभक्ति अधिकार को प्रारंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न “अब भक्ति अधिकार कहा जाता है । "
अब नियमसार की गाथा १३४ एवं परमभक्ति अधिकार की पहली गाथा में रत्नत्रय का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
भक्ति करें जो श्रमण श्रावक ज्ञान-दर्शन- चरण की ।
निरवृत्ति भक्ति उन्हें हो इस भाँति सब जिनवर कहें || १३४||
जो श्रावक या श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, उसे निवृत्ति भक्ति है ह्र ऐसा जिनेन्द्रदेवों ने कहा है ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है । चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण का कारणभूत तीव्र मिथ्यात्व कर्म की प्रकृति के प्रतिपक्षी निज परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणस्वरूप शुद्धरत्नत्रयरूप परिणामों का भजन ही भक्ति है; आराधना है ह्र ऐसा इसका अर्थ है। श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में आरंभ की छह प्रतिमायें जघन्य श्रावक की हैं,