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( मंदाक्रान्ता ) त्यक्त्वा सर्वं सुकृतदुरितं संसृतेर्मूलभूतं नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम् । तस्मिन् सद्दग् विहरति सदा शुद्धजीवास्तिकाये पश्चादुच्चैः त्रिभुवनजनैरर्चितः सन् जिनः स्यात् ।। २१५ । । ( शिखरिणी ) स्वतःसिद्धं ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम् । विनिर्मुक्तेर्मूलं निरुपधिमहानंदसुखदं यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम् ।। २१६।। ( हरिगीत )
संसार के जो मूल ऐसे पुण्य एवं पाप को । छोड़ नित्यानन्दमय चैतन्य सहजस्वभाव को ॥ प्राप्त कर जो रमण करते आत्मा में निरंतर ।
अरे त्रिभुवनपूज्य वे जिनदेवपद को प्राप्त हों ।। २१५||
सम्यग्दृष्टि जीव संसार के मूलभूत पुण्य-पापभावों को छोड़कर नित्यानन्दमय, सहज, शुद्धचैतन्यरूप जीवास्तिकाय को प्राप्त करता है; उसी में सदा विहार करता है और फिर तीनों लोक के जीवों से पूजित होता हो ह्र ऐसा जिनदेव बनता है ।
उक्त छन्द में यह बताया गया है कि भवदुःखों के मूल कारण पुण्य-पापभावों का त्याग कर शुद्धजीवास्तिकाय अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा में जमने - रमनेवाले जीव अनंतसुखस्वरूप सिद्धदशा को प्राप्त करते हैं ।। २१५ ।।
दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
नियमसार
( हरिगीत )
पुनपापरूपी गहनवन दाहक भयंकर अग्नि जो । अर मोहत नाशक प्रबल अति तेज मुक्तीमूल जो ॥ निरुपाधि सुख आनन्ददा भवध्वंस करने में निपुण । स्वयंभू जो ज्ञान उसको नित्य करता मैं नमन ।।२१६||
यह स्वत:सिद्ध ज्ञान पाप-पुण्यरूपी वन को जलानेवाली अग्नि है, महामोहान्धकार को नाश करनेवाले अतिप्रबलतेज से सहित है, मुक्ति का मूल है और वास्तविक आनन्द को देनेवाला है । संसार का नाश करने में निपुण इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूँ ।