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नियमसार
( आर्या )
भवसंभवविषभूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्ध्वा । आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुंजे ।।१९९ ।।
इति सुकविजनपयोगजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः अष्टमः श्रुतस्कन्धः ।
तक हुई अपनी दुर्दशा का चित्रण किया गया है। साथ में इस स्थिति से उबरने के लिए आत्मा से उत्पन्न विशुद्ध सुख का अनुभव करने की बात भी कही गई है।
उक्त दो छन्दों में से पहले छन्द में इस बात पर खेद व्यक्त किया गया है कि जो मुझे अनन्त सुखसमाधि को प्राप्त कराने में समर्थ है, समाधिरूप ध्यान का ध्येय है; ऐसे भगवान आत्मा और उसकी संपदा को मैंने आजतक एक क्षण को भी नहीं जाना ।
यही कारण है कि तीन लोक के वैभव का नाश करने में हेतुभूत दुष्ट कर्मों की प्रभुत्वगुणशक्ति से मैं संसार में मारा गया हूँ, मारा-मारा भटक रहा हूँ, अनंत दुःख उठा रहा हूँ ।
दूसरे और इस अधिकार के अन्तिम छन्द में संसार में उत्पन्न होनेवाले पंचेन्द्रिय के विषय और कषायरूप विषवृक्ष के फलों को दुःखरूप और दुःख का कारण जानकर सन्तों द्वारा ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा में उत्पन्न विशुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द के भोगने की, अनुभव र की बात कही गई है।
इसप्रकर निश्चयप्रायश्चित्त का स्वरूप स्पष्ट करनेवाला यह शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार समाप्त होता है ।। १९८-१९९।।
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्र
“इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार नामक आठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।”
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार नामक आठवाँ श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है।
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