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शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
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अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि कार्टु जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं । । ११९ ।। आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु सर्वभावपरिहारम् ।
शक्नोति कर्तुं जीवस्तस्माद् ध्यानं भवेत् सर्वम् । ।११९ ।।
अत्र सकलभावानामभावं कर्तुं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानमेव समर्थमित्युक्तम् । अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्णनित्यनिरावरणसहजपरमपारिणामिकभावभावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात्, तत एव पापाटवीपावक इत्युक्तम् । अत: पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति ।
है; उस चिदानन्दरूपी अमृत से भरे हुए तप को संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं; अन्य किसी कार्य को प्रायश्चित्त नहीं कहते ।
इस छन्द में भी गाथा की बात दुहराते हुए यही कहा गया है कि चिदानन्दरूपी अमृत से भरा हुआ तप ही निश्चयप्रायश्चित्त है; क्योंकि वह कर्मों का नाशक है, समतासुख और मोक्षरूपी लक्ष्मी को देनेवाला है ।। १८९॥
विगत गाथाओं में तप को प्रायश्चित्त स्थापित करने के उपरान्त अब इस गाथा में ध्यानरूप तप को ही प्रायश्चित्त कह रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
निज आतमा के ध्यान से सब भाव के परिहार की ।
इस जीव में सामर्थ्य है निजध्यान ही सर्वस्व है ।। ११९ ॥
निजात्मस्वरूप के अवलम्बन से यह आत्मा सभी अन्य भावों का परिहार कर सकता है; इसलिए ध्यान ही सर्वस्व ( सबकुछ) है ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
"यहाँ स्वात्मा के आश्रयरूप निश्चयधर्मध्यान ही सभी भावों का अभाव करने में समर्थ है ह्र ऐसा कहा है । समस्त परद्रव्यों के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित, अखण्ड, नित्य, निरावरण, सहज, परमपारिणामिकभाव की भावना से; औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ह्न इन चार भावान्तरों का परिहार करने में समर्थ अति-आसन्न भव्यजीव को पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि कहा है। ऐसा होने से यह सहज सिद्ध है कि पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं । "