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________________ २९२ चित्तं प्रायश्चित्तम् । अनवरतं चान्तर्मुखाकारपरमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्चरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति । (मंदाक्रांता ) प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां मुक्तिं यान्तिस्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापा: । अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्त्ताः पापा: पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ।। १८० ।। नियमसार अन्तर्मुखाकार परमसमाधि से युक्त, परमजिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवी को जलाने के लिए अग्नि के समान, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रह के धारी, सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि समान और परमागमरूपी मकरंद (पुष्प रस) झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभ को यह निरन्तर करने योग्य है, कर्त्तव्य है । " उक्त गाथा और उसकी टीका में पंच महाव्रत, पाँच समिति, शील और इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काय के संयमरूप परिणामों तथा पंचेन्द्रियों के निरोधरूप परिणति को प्रायश्चित्त कहा है । यहाँ महाव्रतादि में शुभभावरूप महाव्रतादि को न लेकर वीतरागभावरूप महाव्रतादि को लेना चाहिए; क्योंकि निश्चयप्रायश्चित्त वीतरागभावरूप ही होता है । टीका के उत्तरार्द्ध में टीकाकार मुनिराज ने निश्चयप्रायश्चित्तधारी मुनिराज की जो प्रशंसा की है, वह परमवीतरागी मुनिराजों के सम्यक् स्वरूप का ही निरूपण है। उसके साथ स्वयं के नाम को जोड़ देने से ऐसा लगता है कि मुनिराज स्वयं की प्रशंसा कर रहे हैं; परन्तु वे अपने बहाने परम वीतरागी भावलिंगी सच्चे मुनिराजों के स्वरूप का ही वर्णन कर रहे हैं। उनके उक्त कथन को आत्मश्लाघा के रूप में न देखकर आत्मविश्वास के रूप में ही देखा जाना चाहिए । 'मेरे मुख से परमागम का मकरंद झरता है' ह्र यह कथन न केवल उनके अध्यात्मप्रेम को प्रदर्शित करता है; अपितु उनके अध्यात्म के प्रति समर्पण भाव को भी सिद्ध करता है ।। ११३ ।। इसके उपरांत टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर । हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है | वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य चिन्तामूढ हों । कामार्त्त वे मुनिराज बाँधे पाप क्या आश्चर्य है ? ॥ १८० ॥
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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