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________________ परमालोचनाधिकार २८५ (वसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्तिमार्गफलदायमिनामजस्रम् । शुद्धात्मतत्त्व-नियता-चरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२।। इस परम-आलोचना अधिकार की अन्तिम गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ छन्द लिखते हैं, जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) जिनवर कथित आलोचना के भेद सब पहिचान कर। भव्य के श्रद्धेय ज्ञायकभाव को भी जानकर|| जो भव्य छोड़े सर्वत: परभाव को पर जानकर। हो वही वल्लभ परमश्री का परमपद को प्राप्त कर ||१७१|| जो भव्यलोक जिनेन्द्र भगवान के मार्ग में कहे गये आलोचना के समस्त भेदजाल को देखकर तथा निजस्वरूप को जानकर सर्व ओर से परभावों को छोड़ता हूँ; वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है। इस छन्द में सम्यक् आलोचना का फल मुक्ति की प्राप्ति होना बताया गया है। कहा गया है कि जो भव्यजीव जैनमार्ग में बताये गये आलोचना का स्वरूप भलीभाँति जानता है और तदनुसार परभावों को छोड़ता है; वह मुक्ति प्राप्त करता है।।१७१|| दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) संयमधारी सन्तों को फल मुक्तिमार्गका। जो देती है और स्वयं के आत्मतत्त्व में।। नियत आचरण के अनुरूप आचरणवाली। वह आलोचना मेरे मन को कामधेनु हो।।१७२।। जो आलोचना संयमी सन्तों को निरन्तर मोक्षमार्ग का फल देनेवाली है, शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत आचरण के अनुरूप है, निरन्तर शुद्धनयात्मक है; वह आलोचना मुझ संयमी को वस्तुतः कामधेनुरूप हो। इस छन्द में टीकाकार मनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव यह भावना व्यक्त करते हैं कि जो आलोचना आत्मतत्त्व के अनुरूप आचरणवाली है, मोक्षमार्ग का फल देनेवाली है; वह शुद्धनयात्मक आलोचना मुझ संयमी को कामधेन जैसी फल देनेवाली हो।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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