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________________ २८२ नियमसार (मालिनी) अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टिः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६९।। जयति सहजतेज:प्रास्तरागान्धकारो मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।। प्रकार की मुक्ति देनेवाले शुद्धात्मा को मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन उसे भाता हूँ, उसकी भावना करता हूँ। (रोला) यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति । सत्य और समधर वाणी का विषय नहीं है। फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर। सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते||१६९।। अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है। मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता।। विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है। शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता ||१७०|| इसप्रकार आदि-अन्त से रहित यह आत्मज्योति; समधुर और सत्य वाणी का भी विषय नहीं है; तथापि गुरु के वचनों द्वारा उस आत्मज्योति को प्राप्त करके जो शुद्धदृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है। जिसने सहज तेज से रागरूपी अंधकार का नाश किया है, जो शुद्ध-शुद्ध है, जो मुनिवरों को गोचर है, उनके मन में वास करता है, जो विषय-सुख में लीन जीवों को सर्वदा दुर्लभ है, जो परमसुख का समुद्र है, जो शुद्धज्ञान है तथा जिसने निद्रा का नाश किया है, वह शुद्धात्मा जयवंत है। उक्त तीनों छन्दों में शुद्धात्मा और उसकी आराधना करनेवालों के गीत गाये हैं। प्रथम छन्द में कहा गया है कि संसार के मूल कारण शुभाशुभभाव हैं। इसलिए मैं जन्म-मरण का
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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