________________
परमालोचनाधिकार
२७५ कर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवालुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति ।
(मंदाक्रांता) एको भाव: स जयति सदा पंचम: शुद्धशुद्धः कर्मारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो यः। मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ।।१६०।। कारण अर्थात् निरंजनरूप से प्रतिभासित होने के कारण सफल हुआ है; इसकारण इस परमपंचमभाव द्वारा अति-आसन्न भव्यजीव को निश्चय परम-आलोचना के भेदरूप उत्पन्न होनेवाला आलुंछन नाम सिद्ध होता है; क्योंकि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम विषवृक्ष के विशाल मूल (मोटी जड़) को उखाड़ देने में समर्थ है।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यह बताया गया है कि परमपारिणामिकभाव के आश्रय से उत्पन्न हुआ आत्मावलोकन (आत्मानुभूति) रूप पर्याय ही आलुंछन नामक आलोचना है। यह निश्चय आलुंछनरूप आलोचना का स्वरूप है। परमपारिणामिकभावरूप परमभाव पुण्य-पापरूप समस्त कर्मरूपी विषवृक्ष को जड़मूल से उखाड़ फेकने में समर्थ है।
यद्यपि यह परमभाव मिथ्यादृष्टियों के भी विद्यमान है; तथापि अविद्यमान जैसा ही है; क्योंकि उसके होने का लाभ उन्हें प्राप्त नहीं होता। इस बात को यहाँ सुमेरु पर्वत की तलहटी में विद्यमान स्वर्णराशि के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। विद्यमान होने पर भी जिसप्रकार उक्त स्वर्ण का उपयोग संभव नहीं है; उसीप्रकार अभव्यों और दूरानुदूरभव्यों के लिए उक्त परमभाव का उपयोग संभव नहीं है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि नित्यनिगोद के जीवों को भी, वह परमभाव शुद्धनिश्चयनय से अभव्यत्वपारिणामिकभाव नाम से संभव नहीं है ह्न टीका में समागत इस कथन का भाव ख्याल में नहीं आया । उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि परमभाव सभी जीवों के पाया जाता है और वह परमभाव परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है। इसकारण परमशुद्धनिश्चयनय से व्यवहारनय के विषयभूत अभव्यत्वपारिणामिकभाव को परमभाव नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अभव्यत्वरूपपारिणामिकभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शनादि की उत्पत्ति संभव नहीं है।॥११०|| इसके बाद टीकाकार दो छंद लिखते हैं। जिनमें से पहले छंद का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(हरिगीत ) हैं आत्मनिष्ठा परायण जो मूल उनकी मुक्ति का । जो सहजवस्थारूप पुण्य-पाप एकाकार है। जो शुद्ध है नित शुद्ध एवं स्वरस से भरपूर है। जयवंत पंचमभाव वह जो आत्मा का नूर है।।१६०||