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परमालोचनाधिकार
२६९ निजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरवशेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति; किं कृत्वा ? पूर्वं निजपरिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य त्वंजानीहि परमजिननाथस्योपदेशात् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति।
(स्रग्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं । यो मुक्तिश्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति । सोऽयं वंद्यः सुरेशैर्यमधरततिभिः खेचरैर्भूचरैर्वा
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम् ।।१५४।। समान जो जीव सदा अन्तर्मुखाकार, अति अपूर्व, निरंजन, निजबोध के स्थानभूत कारणपरमात्मा को सम्पूर्णतया अन्तर्मुख करके निजस्वभावनिरत सहज अवलोकन द्वारा अपने परिणामों को समता में रखकर, परमसंयमीरूप से स्थित रहकर देखता है; यही आलोचन का स्वरूप है। ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथ के उपदेश से जान।
इसप्रकार यह आलोचना के भेदों में पहला भेद हुआ।"
ध्यान रहे, यह आलोचना के प्रथम भेदरूप आलोचन का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली गाथा है। अत: इसमें आलोचना का नहीं, आलोचन का स्वरूप स्पष्ट किया गया है।
इस गाथा में मुख्यरूप से यही कहा गया है कि जब यह आत्मा अन्तरोन्मुख होकर कारणपरमात्मारूप अपने आत्मा का अवलोकन करता है, आत्मा का अनुभव करता है; तब उसका यह अवलोकन ही निश्चय आलोचन है।।१०९||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज छह छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) जो आतमा को स्वयं में अविचलनिलय ही देखता। वह आतमा आनन्दमय शिवसंगनी सुख भोगता || संयतों से इन्द्र चक्री और विद्याधरों से।
भी वंद्य गुणभंडार आतमराम को वंदन करूँ ||१५४|| इसप्रकार जो आत्मा आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा में अविचल आवासवाला देखता है; वह आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दमय मुक्तिलक्ष्मी के विलासों को अल्पकाल में प्राप्त करता है। वह आत्मा देवताओं के इन्द्रों से, विद्याधरों से, भूमिगोचरियों और संयम धारण करनेवालों की पंक्तियों से वंदनीय होता है। सबके द्वारा वंदनीय, सम्पूर्ण गुणों के भंडार उस आत्मा को उसमें विद्यमान गुणों की अपेक्षा से, अभिलाषा से मैं वंदन करता हूँ।